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आनन्दधन का रहस्यवाद
सकता है। इसलिए पुरुषार्थ सिद्धि में स्पष्टतः यह कहा गया है कि अनादिकाल से अज्ञानी जीव व्यवहारनय के उपदेश के बिना वस्तु का स्वरूप समझ नहीं सकते, अतएव उन्हें व्यवहार नय द्वारा समझाया जाता है। इसी तरह आचार्य कुन्दकुन्द ने भी व्यवहार नय की महत्ता एक अन्य ढंग से प्रतिपादित की है। उनका कथन है कि 'जिस प्रकार एक अनार्य को किसी भी प्रकार की शिक्षा देने के लिए, अनार्य भाषा को ही माध्यम बनाना पड़ता है, ठीक इसी प्रकार साधारण जन को 'परमात्मतत्त्व' का ज्ञान व्यवहारनय से ही कराया जा सकता है ।
उपर्युक्त आधार पर व्यवहार नय को निश्चय नय का पूरक कहा जा सकता है। एक साध्य है तो दूसरा साधन । साधक को साध्य तक पहुँचने के लिए एक सोपान की आवश्यकता रहती है और उस सोपान का काम व्यवहार नय करता है। अतः 'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः' की भाँति निश्चय
और व्यवहार नय के समन्वय से ही आत्म-तत्त्व की जानकारी हो सकती है। अपेक्षावाद की दृष्टि से दोनों मार्ग अपने-अपने ध्येय के अनुसार सत्य हैं। एकान्त रूप से निश्चय का कथन करना और व्यवहार का निषेध या अपलाप करना असमीचीन है। इसी प्रकार निश्चय को सर्वथा अनुचित मानकर एकान्त रूप से व्यवहार का आग्रह रखना भी उचित नहीं। जो व्यक्ति इस तरह एकान्त रूप से एक ही दृष्टि का आग्रह रखकर दूसरे का सर्वथा निषेध करता है, वह यथार्थ नय न होकर नयाभास (मिथ्यावाद) होता है। ऐसी स्थिति में नयवादी एक ही दृष्टिकोण को ग्रहण कर संघर्ष कर बैठते हैं। आनन्दघन ने यथार्थ ही कहा है :
सरवंगा सब नइ धणीरे, मानै सब परमान ।
नयवादी पल्लो गहै (प्यारे), करइ लराइ ठान ॥३ १. अबुधस्य बोधनार्थं मुनीश्वरा देशयन्त्यभूतार्थम् । व्यवहारमेव केवलमवैति यस्तस्य देशना नास्ति ॥ ६ ॥
-पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, गा० ६, पृ० ५। . २. जह णवि सक्कमणज्जो अणज्ज भासं विणा उ गाहेउं । तह ववहारेण विणा परमत्युव एसणमसक्कं ॥
-समयसार' गा० ८, पृ० १८। ३. आनन्दधन ग्रन्थावली, पद ६१ ।