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आनन्दघन की विवेचना-पद्धति
१४९ घोषित करने का प्रयास कर रहा था किन्तु उस अलख निरंजन के परम रहस्य की अनुभूति कोई विरला ही कर पाता था। आनन्दघन ने यथार्थ ही कहा है :
अवधू राम नाम जग गावै, बिरला अलख लगावै ।'
ऐसी विषम स्थिति में सन्त आनन्धन ने अपने आराध्य परमतत्त्व को व्यापक रूप में परिभाषित किया। तत्त्वतः आराध्य सभी का एक ही है। उसमें किसी प्रकार का भेद नहीं है। भेद है केवल नाम-रूप का। किन्तु आराध्य के पृथक्-पृथक् नाम-रूपों से उसके स्वरूप में कोई अन्तर नहीं आता। इस व्यापक दृष्टिकोण को दृष्टिपथ में रखकर ही आनन्दघन ने कहा है कि "आनन्दघन चेतनमय निःकर्म री"-'परमतत्त्व' (शुद्धात्म-तत्त्व) वह है जो समस्त कर्मों से रहित चैतन्यमय एवं आनन्द स्वरूप है।
मनुष्य को संकीर्णता के दायरे से हट कर विशाल दृष्टि से परमतत्त्व जानने का प्रयास करना चाहिए। विशाल-दृष्टि से देखने पर परमतत्त्व व्यापक, अखण्ड और अनन्त रूप में दिखाई देता है। इसी कारण आनन्दघन का यह परमतत्त्व निरंजन, निराकार, अलख, आनन्दघन और चैतन्य - स्वरूप है। अनन्त हैं, उसके नाम और रूप । उन्होंने उसे राम-रहीम, कृष्ण-करीम, महादेव, पार्श्वनाथ, ब्रह्म आदि नामों से भी सम्बद्ध किया है। उनके कतिपय पदों में परम तत्त्व का अति व्यापक वर्णन हुआ है। जैसे-उन्होंने परमतत्त्व को ब्रजनाथ के रूप में (पद ९५), बंसीवाले (श्रीकृष्ण) के रूप में (पद ९८), हरि के रूप में (पद ९६), राम के रूप में (पद ७, पृ० ३९), निरंजन के रूप में (पद ८) ब्रह्म के रूप में (पद ६५) निरूपित किया है।
एक पद में तो उन्होंने सर्वधर्मों में प्रचलित परमतत्त्व के विविध नामों का एक साथ प्रयोग कर समन्वय-दृष्टि का अच्छा परिचय दिया है। उनकी सर्वधर्मों के प्रति समादरता का निम्नांकित पद मननीय है :
१. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ९७ । २. वही पद।