________________
आनन्दघन की विवेचना-पद्धति
१५१
चैतन्यमय आनन्द-स्वरूप परमतत्त्व का यही यथार्थ स्वरूप है। और यहो चरम सत्य है। इसी का ज्ञान प्राप्त करना प्रत्येक साधक का लक्ष्य है। स्वयं आनन्दघन भी इस आनन्दमय परमतत्त्व की आराधना इसी रूप में करते हैं। लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं कि वे अवतारवाद के समर्थक हैं अथवा परमतत्त्व के सम्बन्ध में उनकी कोई निश्चित धारणा नहीं है। मूल बात यह है कि उन्हें किसी भी प्रकार की संकीर्णता स्वीकार नहीं है। वे अपने आराध्य को किसी भी नाम से, चाहे वह सगुणवाची हो या निर्गुणवाची, कहने में संकोच का अनुभव नहीं करते। इसका स्पष्ट प्रमाण उनकी 'आनन्दघन चौबीसी' और 'आन्दघन बहोत्तरी' है। 'आनन्दघन बावीसी' में उन्होंने जैन परम्परानुसार प्रत्येक तीर्थकर की नामोल्लेखपूर्वक स्तुति की है, जबकि 'आनन्दघन बहोत्तरी' में मुख्यतः 'निरंजन चेतनमय मूरति' के रूप में परमतत्त्व के स्वरूप को प्रस्तुत किया है। दूसरे शब्दों में 'आनन्दघन बावीसी' सगुणोपासना और 'आनन्दघन बहोत्तरी' निर्गुणोपासना की द्योतक कही जा सकती है।
यह सच है कि जिसे परमतत्त्व के स्वरूप की वास्तविक अनुभूति हो जाती है, वह साम्प्रदायिक भेद के पचड़े में या संकीर्णता के घेरे में आबद्ध नहीं रह सकता। उसके लिए राम-रहीम, कृष्ण-करीम, पार्श्वनाथ और महादेव या ब्रह्म आदि में कोई अन्तर नहीं रह जाता और न उसे साकार (सगुण) और निराकार (निर्गुण) ब्रह्म में कोई भेद प्रतीत होता है। उसका तो अपना एक धर्म होता है और वह है, आत्म-धर्म (शुद्धात्म-धर्म)। यही बात आनन्दघन पर पूर्णरूपेण चरितार्थ होती है। जैन मत में दीक्षित होने के उपरान्त भी परमतत्त्व के सम्बन्ध में उनकी धारणा अतिव्यापक एवं समन्वयकारी रही है। सामान्यतया जैन परम्परा में परमतत्त्व की उपासना तीर्थंकरों के रूप में ही की जाती रही है, किन्तु आनन्दघन ने परमतत्त्व की उपासना तीर्थंकरों की स्तुति के अतिरिक्त कृष्ण, ब्रजनाथ, श्याम, हरि, निरंजन, अलख, ब्रह्म इत्यादि के रूप में भी की है। १. निज पद रमै राम सो कहिये, रहम करे रहमान री।
कर करम कान्ह सो कहिये, महादेव निरवाण री । परसै रूप सो पारस कहिये, ब्रह्म चिन्है सो ब्रह्म री । इहबिध साध्यो आप आनन्दघन चेतनमय निःकर्मरी ॥
-आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ६५ ।