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आनन्दघन की विवेचना-पद्धति
१३७ का पूर्ण परिचय पाते हैं।" निश्चय दृष्टि (नय) वह है, जो वस्तु की तात्त्विक स्थिति को अर्थात् वस्तु के मूल स्वरूप को स्पर्श करती है। यह दृष्टि अभेदगामिनी एवं अन्तरंग से सम्बद्ध है। यह भिन्नता में अभिन्नता, अनेकत्व में एकत्व तथा स्थूल-तत्त्व में सूक्ष्म-तत्त्व के दर्शन करती है। तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में यह दृष्टि आत्मा के बन्धन, मोक्ष, कर्तृत्त्व, भोक्तृत्त्व आदि प्रत्ययों को महत्त्व न देकर केवल आत्मा के शुद्ध स्वरूप का प्रतिपादन करती है। बन्धन, मोक्ष, कर्तृत्त्व, भोक्तृत्त्व आदि आत्मा की समस्त पर्याएँ इसकी दृष्टि में गौण हैं। इसके विपरीत जो दृष्टि वस्तु के बाह्य पक्ष (अवस्था) की ओर लक्ष्य खींचती है, वह व्यवहार-दृष्टि कही जाती है। व्यवहार-दृष्टि बहिरंग से सम्बद्ध तथा भेदगामिनी होती है। वह अभिन्नता में भिन्नता, एकत्व में अनेकत्व की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करती है। संक्षेप में, एक अभिन्नता का प्रतिपादन करती है तो दूसरी भिन्नता को प्रदर्शित करती है। एक सूक्ष्म तत्त्वग्राही है तो दूसरी स्थूल तत्त्वग्राही। एक अभेदगामिनी है तो दूसरी भेदगामिनी । एक आत्मा के वास्तविक शुद्ध स्वरूप का वर्णन करती है तो दूसरी आत्मा की अशुद्ध-दशा को दर्शाती है। इसीसे आचार्य कुन्दकुन्द ने 'ववहारो भूयत्थो, भूयत्थो देसिदो सु शुद्ध णओ'२ कहकर व्यवहार नय को अभूतार्थ और शुद्ध नय (निश्चय नय) को भूतार्थ कहा है। आचार्य अमृतचन्द्र ने भो निश्चय नय को भूतार्थ और व्यवहार नय को अभूतार्थ कहा है। ___ सन्त आनन्दघन ने इन्हीं दोनों दृष्टियों (नयों) को लक्ष्य में रखकर आत्मतत्त्व के रहस्यमय गूढ स्वरूप को समझाने का प्रयास किया है। निश्चय दृष्टि से आत्मतत्त्व का सम्यक् विवेचन उन्होंने 'अवधू नाम हमारा राखे, सोइ परम महारस चाखे'४ पद में किया है, जिसमें यह दिग्दर्शन १. समयसार आफ श्रीकुन्दकुन्द-इन्ट्रोडक्शन बाइ प्रो० ए० चक्रवर्ती, पे०१८।
-उद्धृत, 'अपभ्रंश और हिन्दी में जैन रहस्यवाद', पृ० १३१ । समयसार, ११ । ३. निश्चयमिह भूतार्थ व्यवहारं वर्णयात अभूतार्थम् ।
-पुरुषार्थसिद्धयुपाय-(अमृतचन्द्राचार्य विरचित)। ४. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ११ ।
तुलनीय-परमात्मप्रकाश, प्र० ख०, गा०६८-७१ ।