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आनन्दघन का रहस्यवाद
__इससे यह सिद्ध होता है कि निश्चय-व्यवहारमूलक यह द्विविध वर्गीकरण जैनदर्शन में अतिप्राचीन काल से है। न केवल जैनदर्शन में, जैनेतर दर्शनों में भी निश्चय-व्यवहारनय के समान दो दृष्टियाँ पाई जाती हैं। मुण्डकोपनिषद् में कहा गया है कि शौनक नामक गृहस्थ द्वारा जब आचार्य अंगिरा से पूछा गया कि 'कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति," तो प्रत्युत्तर में आचार्य अंगिरा ने कहा कि इस रहस्य को ज्ञात करने के पूर्व द्विविध विधाओं को जानना अनिवार्य है। एक है पराविद्या अर्थात् परमात्म विद्या और दूसरी है अपराविद्या अर्थात् धर्म, अधर्म के साधन और उनके फल से सम्बन्ध रखनेवाली विद्या ।२ अपराविद्या केवल बाह्यज्ञान का परिचय कराती है जब कि पराविद्या आत्मतत्त्व और परमात्मतत्त्व का पूर्णज्ञान प्राप्त कराती है। औपनिषदिक दर्शन की ये दोनों विधाएँ जैनदर्शन में स्वीकृत व्यवहार और निश्चय नय के समान ही हैं। इसी तरह बौद्ध दर्शन में भी सत्य के दो रूपों की चर्चा है। मध्यमक शास्त्र में कहा गया है कि बुद्ध की धर्म देशना दो सत्यों पर आश्रित है-लोक संवृति सत्य और परमार्थ सत्य । लोक संवृति सत्य और परमार्थ सत्य भी क्रमशः व्यवहार और निश्चय नय की भांति ही हैं। भारतीय दर्शनों के अतिरिक्त पाश्चात्य दर्शन में भी इस प्रकार के विविध भेद की झलक मिलती है। अन्य आध्यात्मिक दर्शनों में भी इस प्रकार के सत्य-द्वय को खोजा जा सकता है।
इस प्रकार, संक्षेप में नय के मूल भेद दो हैं-एक निश्चयनय और दूसरा व्यवहारनय। निश्चयनय को परमार्थनय और व्यवहारनय को अपरमार्थनय भी कहा जाता है। प्रो० ए० चक्रवर्ती के शब्दों में ‘परमार्थ शब्द परमात्मा का द्योतक है और सत्य के अन्तरतम में प्रवेश करने का दार्शनिक पथ प्रदान करता है, जिससे हम चरम सत्य के यथार्थ स्वभाव
१. मुण्डकोपनिषद्, १११३ २. द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद्ब्रह्मविदो वदन्ति परा चैवापरा च । परा च परमात्म विद्या । अपरा च धर्माधर्मसाधन तत्फल विषया ।
-मुण्डकोपनिषद् १।४।५। ३. द्वे सत्ये समुपाश्रित्य, बुद्धानां धर्म देशना । लोक संवृत्ति सत्यं च, सत्यं च परमार्थतः ॥
-मध्यमकशास्त्रम्, २४१८ नागार्जुन प्रणीत ।