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आनन्दघन की विवेचना-पद्धति
१३३ फल विसंवाद जेहमां नहीं, शब्द ते अर्थ सम्बन्धि रे।
सकल नयवाद व्यापी रह्यो, ते शिव साधन संधि रे ।' जिनके वचनों में फल के सन्देह (संशय) का अवसर नहीं है, जिनके शब्द भ्रान्ति रहित यथार्थ अर्थ के द्योतक हैं और जिनके वचनों में सर्वत्र समग्र नयवाद व्याप्त है अर्थात् जिसमें सब दृष्टिकोणों का समन्वय है, ऐसे गुरु का उपदेश मोक्ष मार्ग की साधना में कारण रूप है। ____नय क्या है ? सामान्यतया नय का अर्थ है-अपेक्षा, दृष्टि या अभिप्राय । नयचक्रसार में 'नय' की परिभाषा इस प्रकार की गई है कि 'वस्तु के अनेक धर्म होते हैं, उनमें से किसी एक धर्म को प्रधानता देनेवाले और अन्य धर्मों को गौण रखनेवाले ज्ञान को नय कहते हैं ।
नीयते परिच्छिद्यते अनेन, अस्मिन्, अस्माद् वेति नयः।
अनन्त धर्माध्यासिते वस्तुन्येकांश ग्राहको वेधि इत्यर्थः ।। जिसके द्वारा, जिसमें अथवा जिससे अनन्तधर्मात्मक वस्तु के किसी एक अंश का बोध किया जाए, वह 'नय' है। नयों का वर्गीकरण अनेक प्रकार से हुआ है। आचार्य सिद्धसेन का तो कहना है कि जितने भी वचन के प्रकार हैं, उतने ही नय हैं, क्योंकि वस्तु अनन्तधर्मात्मक है, अतः नयों की संख्या भी अनन्त है। फिर भी जैनाचार्यों ने उन्हें संक्षेप में प्रस्तुत
१. वही, शान्तिजिन स्तवन । २. अनन्तधर्मात्मके वस्तुन्येकधर्मोन्नयनं ज्ञानं नयः ।
-नयचक्रसार । ३. अभिधान राजेन्द्र कोश, खण्ड ४, पृ० १८५२ । ४. (अ) जावइया वयणा पहा, तावइया चेव होति णय-वाया । जावइया णय-वाया, तावइया चेव पर-समया ।।
-सन्मति तर्क, ३।४७ (ब) जावंतो वयण पहा, तावंतो वा नया विसद्दाओ। तेचेवय पर समया, सम्मत्तं समदिया सव्वे ॥
-विशेषावश्यक भाष्य, २२६५ । (स) जावदिया वयणपहा, तावदिया चेव होंति णयवादा । जावदिया णयवादा, तावदिया चेव होंति पर समया ॥
-गोम्मटसार कर्मकाण्ड, ८९४ ।