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आनन्दघन की विवेचना-पद्धति
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मूखरूपी गगन-मण्डल के मध्य एक कूप है। वहाँ अमृत का वास है। खेचरी मुद्रा को गुरुगम से जानकर जिस शिष्य ने इसकी सिद्धि की है, वही इस कूप से आनन्द रूप अमृत के प्याले भर-भर कर पीता है। किन्तु गुरु विहीन शिष्य अमृत का पान किए बिना ही कूप से प्यासा लौट जाता है। गोरख आदि योगी की अपेक्षा से यह बाह्य अर्थ होता है, लेकिन सहज योगी ऐसे अमृत की इच्छा नहीं करते। अतः इसका दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि मानव देह में स्थित गगन-मण्डल का मध्य भाग नाभि, वहाँ आत्मा के आठ रूचक प्रदेश रूप अमृत का कूप है। एक-एक प्रदेश में अनन्त आनन्दरूप अमृत-रस भरा है। प्रदेश कर्मफल से रहित या निर्मल है। जो गुरुगम से ज्ञान प्राप्त कर नाभि में ध्यान लगाता है। वह आनन्दरूप अमत के प्याले भर-भर कर पीता है अथवा शीर्ष सम्बन्धी गगन-मण्डल के मध्य ब्रह्मरन्ध्र रूप कूप है, जिस शिष्य के मस्तक पर सुगुरु का हाथ है, वह ब्रह्मरन्ध्र में आत्मा का ध्यान करके समाधि लगाता है और फलतः अमृत का पान करता है, किन्तु गुरु विहीन शिष्य उस अमृत से वंचित रहता है।
तीर्थंकर परमात्मा के मुखरूपी गगन-मण्डल में वाणीरूपी गाय का उद्भव हुआ और वाणीरूपी गाय से निःसृत उपदेश रूप दूध को मर्त्यलोक रूपी धरती पर गणधरों के द्वारा जमाया गया, गूंथा गया। तदनन्तर उसे ज्ञानियों द्वारा बुद्धिरूपी मथानी से मंथन करने पर ज्ञान, दर्शन, चरित्र के अखण्डानन्दरूप नवनीत को तो विरले पुरुषों ने ही पाया, शेष संसार के प्राणी छाछ में ही सन्तुष्ट हो गये।
आत्मारूपी तम्बूरे में बिना डण्ठल के पत्र हैं और बिना पत्ते के यह आत्मारूपी तूम्बा (फल) है। बिना जिह्वा के गुण-गान हो रहा है । इतना ही नहीं, आत्मा रूपी गायक का न रूप है, न उसकी रेखा है, क्योंकि वह अरूपी है फिर भी, असंख्यात प्रदेश रूप आत्मा शरीररूपी तम्बूरे को पराभाषा द्वारा बजाता है। अभिप्राय यह है कि शरीर स्थित आत्मा ही तम्बूरा है और आत्मा ही इसे बजानेवाला है। यह बात सुगुरु के द्वारा बताई गई है। __आत्मानुभव के बिना उपर्युक्त सूक्ष्म गहन भावों का ज्ञान नहीं हो सकता और न अन्तर्योति को प्रकट किया जा सकता है। आनन्दघन