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आनन्दघन का रहस्यवाद
अन्य पदों में भी आनन्दघन ने रहस्यात्मकता का प्रयोग किया है। एक पद में उन्होंने कहा है-'हे चेतना रूपी चरखा चलानेवाली ! सुन, तेरा यह शरीररूपी चरखा अहंकाररूप चूं चूं की आवाज कर रहा है। चेतना की वीर्य रूपी जल व गर्भाशयरूपी स्थल में उत्पत्ति हुई और स्वयं ही शरीर रूपो नगर में निवास करने लगी। एक आश्चय ऐसा देखा है कि ममतारूपी बिटिया ने मोह-अज्ञान रूप पिता को जन्म दिया है । चेतना भावना-भक्ति रूपी रूई को लेकर स्मरण रूप शुद्धिकरण के लिए ज्ञान रूप जुलाहे के पास गई। ज्ञान रूपी जुलाहे ने मनरूपी रूई को साफ करने के लिए एकाग्रतारूपी करघे को चलाया। ममतारूपी बिटिया अपने मोह रूप पिता से कह रही है कि मेरा ब्याह करो। मैं शुद्धात्म रूप से उत्तम वर चाहती हूँ। जब तक शुद्धात्म रूप वर नहीं मिलता है तब तक ममता रूपी बिटिया से मोह रूप पिता का जन्म होता रहेगा। तात्पर्य यह है कि ममता से अज्ञान और अज्ञान से ममता का क्रम चलता रहेगा।
मायारूपी सास, कुमति रूपी नणंद और अशुद्ध चेतन रूप पति भी मर जाय, किन्तु इस देह रूप चरखे का ज्ञान करानेवाला सद्गुरू रू पी बुड्ढा न मरे । मुझे उनसे ज्ञान वृत्ति एवं भक्तिरूपी अथवा विभिन्न साधना रूप जो चरखा मिला है, उसे यह चरखा बता दे । मेरा यह शरीर रूपी चरखा विविध साधना रूपी रंगों से रंगा हुआ है। इससे सूत कातने के लिए शुद्ध भावना रूपो पूणी है। सुमति रूपी सुन्दर जुलाहिन अप्रमत्त
ससरो हमारो बालो भोलो, सासू बाल कुमारी। पियुजी हमारो पोढे पारणीये, तो मैं हं झुलावन हारी ॥२॥ नहीं तूं परणी नहीं हूं कुवारी, पुत्र जणावनहारी। काली दाढ़ी को मैं कोई नहीं छोड्यो, तो हजुडं बालकुमारी ॥ ३ ॥ अढी द्वीप में खाट खटुली, गगन ओशी कुतलाई । धरती को छेडो आभकी पिछोडी, तोय न सोड भराई ॥ ४ ॥ गगन मंडल में गाय बिआणी, बसुधा दूध जमाई । सउरे सुनो भाई बलोणूं बलोवे, तो तत्व अमृत को पाई ॥ ५ ॥ नहीं जाउं ससरीए ने नहीं जाउं पीयरीए, पीयुजी की सेज बिछाई । आनन्दघन कहे सुनो भाई साधु, तो ज्योति में ज्योति मिलाई ॥ ६ ॥
-आनन्दघन ग्रन्थावली, पद १०१ ।