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आनन्दघन की विवेचना-पद्धति
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श्रीमद् राजचन्द्र जी ने भी कहा है :
भिन्न-भिन्न मत देखीए, भेद दृष्टिनो एह । ___ एक तत्त्वना मूल मां, व्याप्या मानो तेह ।।' एकान्त और अनेकान्त में मौलिक भेद यही है कि एकान्त कथन में 'ही' का आग्रह रहता है और अनेकान्त-दृष्टि में 'भी' के सदाग्रह की प्रधानता रहती है। जैनदर्शन में एकान्त को मिथ्यात्व कहा गया है। सन्त आनन्दघन ने भी एकान्त निरपेक्ष वचन को मिथ्या बताकर सापेक्ष (अनेकान्त) वचन की यथार्थता पर बल दिया है । वे कहते हैं :
वचन निरपेख व्यवहार झूठो कह्यौ, वचन सापेख व्यवहार सांचो।
वचन निरपेख व्यवहार संसारफल, सांभली आदरी कांइ राचो ॥३ उनका उद्घोष है कि निरपेक्ष वचन-अपेक्षारहित या एकान्त वचन मिथ्या है, असत्य है और सापेक्षवचन-अनेकान्तवचन सत्य है । एकान्त वचन का प्रयोग करना असद्व्यवहार है और वह संसार को बढ़ाता है ।
अनेकान्त-दृष्टि चिन्तन की एक ऐसी व्यापक विचार पद्धति है, जो सर्वांगीण दृष्टि प्रदान करती है। इसमें सभी दृष्टियों का समादर, समन्वय तथा वस्तु का पूर्ण प्रतिपादन करने की क्षमता है। 'अनन्तधर्मात्मकं वस्तु'४-जैनदर्शन का सुप्रसिद्ध सिद्धान्त है । एक ही वस्तु में अनन्त धर्मों की सत्ता है। 'अनेकान्त' शब्द वस्तु के अनन्त धर्म का उद्घोष करता है, किन्तु वस्तु के अनेक धर्मों को एक ही शब्द से एक समय में युगपद् नहीं कहा जा सकता। इसीलिए जैनदर्शन में 'स्याद्वाद' का विकास हुआ। स्याद्वाद कथन करने की एक निर्दोष भाषा-पद्धति है। अतः यह वस्तु की अनेक धर्मता का अपेक्षा दृष्टि से कथन करती है। 'स्यात्' शब्द १. श्रीमद् राजचंद्र (हिन्दी अनुवाद), प्रथम खण्ड, पृ० २२५ ।
एगंत होइ मिच्छत्तं । ३. आनन्दघन ग्रन्थावली, अनन्त जिन स्तवन । ४. 'अनन्तधर्मात्मकमेवतत्त्वम्'
-स्याद्वाद मंजरी, २२, पृ० २०० । 'वस्तु-धर्मो ह्यनेकान्तः'
-अनेकान्त-व्यवस्था, प्रथम भाग, प्रकरण-उपा० यशोविजय, श्लो०३।