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आनन्दघन का रहस्यवाद
उक्त पद में समता हृदय रूप समुद्र की पुत्री है और अनुभव रूप चन्द्रमा इसका भाई है । समता ने संसार के विषय-वासना रूप गरल को त्याग कर संसार में शान्ति रूप अमृत का सृजन किया है। वस्तुतः समता आर्त-रौद्र ध्यान रूप विष का परित्याग कर धर्म-शुक्ल ध्यान रूप अमृत ग्रहण करती है। सहस्रों नेत्र और हजार पैर वाले क्रोध, मान, माया और लोभ रूप चतुर्मुखी मोह रूप महाराक्षस को देखकर समता अत्यन्त भयभीत हो जाती है। उसे भयभीत देखकर पुरुषों में उत्तम ऐसे आनंद रूप परमात्मा ने उसे अपना लिया। इसी पद को हिन्दू पौराणिक रूपक द्वारा और अधिक स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है।
हिन्दू पौराणिक मान्यतानुसार समुद्र से चौदह रत्न निकले, इसलिए वह 'रत्नाकर' कहलाता है। हिन्दू पुराणों में इस बारे में कहा जाता है कि अमृत प्राप्त करने के लिए एक बार देव और दानवों ने मिलकर समुद्र का मन्थन किया। मन्थन के लिए सुमेरू पर्वत को 'रई' (मथनी) बना और शेषनाग रूप रस्सी द्वारा समुद्र को मथा गया। समुद्र मन्थन के पश्चात् उनमें से चौदह रत्न' प्राप्त हुए। यहां द्रष्टव्य यह है कि आनन्दघन के अनुसार मानव-हृदय ही रत्नाकर है, क्योंकि इसमें समता, क्षमा, सन्तोष, ऋजुता, शान्ति आदि अनेक भाव रत्न भरे पड़े हैं । चूंकि हृदय में अनेक भाव उत्पन्न होते हैं और विलीन होते हैं, इसलिए भी हृदय समुद्रवत् है। आनन्दघन भी हृदय रूप समुद्र का मन्थन कर उसमें से समता रूप लक्ष्मी प्राप्त करते हैं। बुद्धि द्वारा हृदय रूप समुद्र का मन्थन होता है। मानव की समता-ममता रूप सद्-असद् वृत्तियां इसे इधर-उधर खींचती हैं। सवृत्तियां देवरूप हैं और असद् वृत्तियां असुर रूप । हृदय समुद्र के मन्थन से समता-लक्ष्मी प्रकट होती है जिसे हिन्दू-परम्परा में पहला रत्न कहा गया है और हृदय-मन्थन से ही छठा रत्न अनुभव रूप चन्द्रमा प्रकट होता है जिसके आलोक में आत्मा को जड़-चेतन का भेदविज्ञान होता है । इसी हृदय-मन्थन से विषय-वासनारूप कालकूट विष भी
चौदह रत्न-(१) लक्ष्मी, (२) कौतुभ रत्न, (३) पारिजातक पुष्प, (४) सुरा, (५) धन्वतरि वैद्य, (६) चन्द्रमा, (७) कामधेनु, (८) ऐरावत हाथी, (९) रंभा देवांगना, (१०) सात मुखवाला उच्चैश्रवा अश्व, (११) काल-कूट (विष), (१२) धनुष, (१३) पांचजन्य शंख और (१४) अमृत ।