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आनन्दघन की विवेचन-पद्धति
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निकलता है, जो १४ रत्नों में से ग्यारहवां रत्न है । इतना ही नहीं, अन्ततः इसी हृदयमन्थन से चौदहवां परमानन्द रूप अन्तिम रत्न अमृत प्राप्त होता है । समता सद्वृत्ति रूप है और सद्वृत्ति देवत्व की प्रतीक है हिन्दू मान्यतानुसार देवताओं ने अमृत प्राप्त किया और दानवों ने विष । इसीलिए आनन्दघन ने इसी दृष्टि से कहा है कि समता रूप सद्वृत्तियों ने विषय-वासना रूप काल- कूट (विष) को छोड़कर शान्ति रूप अमृत रस को ग्रहण किया । माया-ममता आदि असद् वृत्ति रूप हैं और असद् वृत्तियां दानवों की प्रतीक हैं । अतः माया-ममता आदि असद्वृत्ति रूप दानवों ने विषय-वासना रूप विष को पाया ।
हिन्दू परम्परा में ब्रह्मा को चार मुख और हजार नेत्र तथा हजार पैर वाला कहा गया है । अतः विष्णु की पत्नी लक्ष्मी ब्रह्मा के इस विकराल रूप को देखकर डर जाती हैं, तब विष्णु उसे प्रेमपूर्वक गले लगा लेते हैं । यहां आनन्दघन ने क्रोध, मान, माया और लोभ रूप चतुर्मुखी मोह रूप महाराक्षस को चतुरानन (ब्रह्मा) का रूपक दिया है, क्योंकि क्रोध, मान, माया और लोभ रूप चार मुखवाले मोह-राक्षस के भी हजार नेत्र और हजार पैर होते हैं । चतुर्मुखी मोह के अनेक भेद-प्रभेद हैं । इसलिए इस विकराल मोह रूप ब्रह्मा के चार मुख, हजार नेत्र एवं हजार पैर देखकर आत्मारूपी विष्णु की पत्नी समतारूपी लक्ष्मी भयभीत हो जाती है । ऐसी स्थिति में आनन्द रूप आत्मा जो कि राग-द्वेष रहित और पुरुषों में श्रेष्ठ है, ऐसे वीतरागदेव रूप विष्णु ने समता रूप लक्ष्मी को प्रसन्नतापूर्वक अपना लिया ।
वास्तव में प्रस्तुत पद में आनन्दघन ने श्रद्धा से मानी जानेवाली हिन्दू पौराणिक कथा का अत्यन्त बुद्धिगम्य सुन्दर रूपक देकर कल्पना-शक्ति का अद्भुत कौल प्रदर्शित किया है ।
आनन्दघन ने एक अन्य पद में रूपक द्वारा हृदय विदारक दृश्य प्रस्तुत किया है । इसमें शुद्ध चेतना रूप समता-प्रिया, शुद्ध चेतन रूप अपने प्रियतम से राग-द्वेष, क्रोध, मान, माया लोभादि दुष्टों के काले कारनामों का भण्डाफोड़ करती हुई कहती है कि हे कंत ! आपने वीर्यरूपी एक बूंद से शरीररूप महल बनाया और उसमें आपने अपनो ज्योति भी आलोकित की है किन्तु इस शरीर रूप महलमें तो राग-द्वेषरूप दो चोर बैठे हुए हैं, जो सदैव आत्मगुणों की चोरी करते रहते हैं। साथ ही, इस महल में श्वास और उच्छ