________________
आनन्दघन की विवेचन-पद्धति
११५ होती है और कुबुद्धि रूप कुब्जा की पराजय । यहां आनन्दघन ने कुब्जा और राधिका के रूपक द्वारा कुबुद्धि और सुबुद्धि की चरित्रगत विशेषताओं की ओर संकेत किया है। इसी चौपड़ के खेल को आगे बढ़ाते हुए वे कहते हैं :
प्रानी मेरो, खेल चतुरगति चोपर ।
नरद गंजफा कौन गिनत है, मानै न लेखे बुद्धिवर ।।' इस संसार में मेरी आत्मा अथवा प्रत्येक प्राणी चतुर्गति रूप चौपड़ खेल रहा है। वस्तुतः बाह्य रूप से जो चौपड़ सामान्य व्यक्ति खेलते हैं, उससे चतुर्गति रूप चौपड़ की क्या समानता हो सकती है ? अर्थात् वुद्धिमानों की दृष्टि में चतुर्गति रूप चौपड़ के सामने नरद गंजफा के खेलों का कोई महत्त्व नहीं । आनन्दघन कहते हैं :
राग दोस मोह के पासे, आप बणाए हितधर ॥
जैसा दाव परै पासे का, सारि चलावै खिलकर ॥३ आत्मा ने स्वयं प्रसन्न होकर संसाररूप चौपड़ को खेलने के लिए रागद्वेष और मोह रूप पासे बना लिए हैं। जैसा पासा आता है उसी के अनुसार आत्मा रूप कर्म खिलाड़ी द्वारा सार (गोट) चलाई जाती है। तात्पर्य यह कि चतुर्गति रूप चौपड़ में आत्मा को राग-द्वेष और मोह रूप पासे के कारण ही विभिन्न शरीर धारण करना पड़ता है। आत्मा रागद्वेष-मोह की जैसी-जैनी प्रवृत्तियाँ करता है, तद्वत् उसे विभिन्न गतियों एवं उत्पत्ति स्थानों में जाना पड़ता है। निम्नलिखित पंक्तियों में आनन्दघन इसी चौपड़ के खेल का स्वरूप बताते हुए कहते हैं :
पाँच तले हे दुआ भाई, छका तले है एका ।। सब मिलि होत बराबर लेखा, इह विवेक गिणवेका ॥ चौरासी माँवै फिरै नीली, स्याह न तोरै जोरी। लाल जरद फिरि आवै धरमैं, कबहुक जोरी बिछोरी ।। भीर (भाव) विवेक के पाउ न आवत, तब लगि काची बाजी। आनंदघन प्रभु पाव दिखावत, तौ जीते जीव गाजी ।।४
आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ५६ । २. गोटवाली चौपड और छोटे पत्तों का खेल । ३. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ५६ । ४. वही।