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आनन्दघन का रहस्यवाद
षड् दरसण जिन अंग भणीजै, न्यास षडंग जे साधेरे ।
नमि जिनवर ना चरण उपासक, षड् दरसण आराधैरे ॥' उनके अनुसार वीतराग का उपासक सभी दर्शनों का आराधक होता है। वह सर्वदर्शनों एवं सर्वधर्मों के प्रति सहिष्णु होता है। किसी दर्शन से द्वेष नहीं करता, क्योंकि उसकी दृष्टि इतनी व्यापक, सत्यग्राही, उदार और सहिष्णु होती है कि उसके लिए कोई भी दर्शन पराया नहीं रहता। लेकिन ऐसा केवल तभी हो सकता है जब कि वह केवल अनेकान्त की, समन्वयवादिता की, कोरी चर्चा न करे, उसे जीवन में भी उतारे। जैनदर्शन की व्यापकता का मनोरम चित्र खींचते हुए आनन्दघन कहते हैं :
जिनवरमा सगला दरसण छे, दरसण जिणवर भजनारे ।
सागरमा सघली तटनीछ, तटिनी सागर भजना रे ॥२ जैनदर्शन विशाल महासमुद्र है जिसमें अनेक नदियों के रूप में विभिन्न दर्शन समाविष्ट हैं, किन्तु नदी रूप अन्य दर्शनों में समुद्ररूप जैनदर्शन आंशिक रूप से समाहित है। इससे विदित होता है कि आनन्दघन जैनमतावलम्बी को उदार एवं सर्वदर्शन समन्वयी बनने की स्पष्ट सीख देते हैं।
वे केवल दार्शनिक समन्वयवादी ही नहीं थे, धार्मिक सहिष्णुता भी उनमें कूट-कूट कर भरी थी। उनके समय में साम्प्रदायिक संकीर्णता ने समाज में विषमता पैदा कर दी थी। एक धर्म दूसरे धर्म के अनुयायियों का रक्त-पिपासु बन रहा था। धार्मिक कट्टरता ने हिन्दू मुसलिम अलगाव पैदा कर दिया था। ऐसे विषम समय में आनन्दघन ने भेदभाव दूर करने का बीड़ा उठाया। उन्होंने निर्भीक रूप से उद्घोषणा की
राम कहौ रहिमान कहौ, कोउ कान्ह कहौ महादेवरी । पारसनाथ कहौ कोउ ब्रह्मा, सकल ब्रह्म स्वयमेवरी ॥ भाजन भेद कहावत नाना, एक मृत्तिका रूपरी । तैसे खंड कल्पनारोपित, आप अखण्ड सरूपरी ॥'
१. नमिजिनस्तवन, आनन्दघन ग्रन्थावली । २. वही। ३. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ६५ ।