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आनन्दघन का रहस्यवाद
उन्होंने आत्मा को देखने की भी घोषणा कर दी है । जब उनका आनन्द'घन रूप आत्मा से परिचय हो जाता है तब उनके हृदय से बाह्यरूप मोहमाया का आवरण दूर हो जाता है
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साधो भाई अपना रूप जब देखा ।
आनन्दघन प्रभु परचो पायो, उतर गयो दिल मेखा ||
इसी तरह 'निसीनी कहां बताबुरं, बचन अगोचर रूप र पद में आत्मा के अनिर्वचनीय रूप की सुन्दर मीमांसा दृष्टिगत होती है। आत्मरूप से सम्बन्धित पदों के अतिरिक्त आनन्दघन ने आत्मानुभव सम्बन्धी साखियों की भी रचना की है । इस सम्बन्ध में उनकी कतिपय साखियों की प्रारम्भिक पंक्तियाँ की जा सकती हैं। 'उद्धृत
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१ - " आतम अनुभव फूल का, नवली कोउ रीत । नाक न पकरै बासना, कान गहै परतीति ॥
२ - " आतम अनुभव रस कथा, प्याला पिया न जाइ । मतवाला तो ढहि परै, निमता परै पचाइ ॥ ४ ३ - " आतम अनुभौ रसकथा, प्याला अजब बिचार | अमली चाखत ही मरे, घूमै सब संसार ॥” ४- “ आतम अनुभव प्रेम को, अजब सुण्यो विरतंत । निरवेदन वेदन करें, वेदन करे अनन्त ॥ ६
उक्त साखियों में आनन्दघन ने अध्यात्मवाद का अनूठा चित्र उतारा
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है।
दार्शनिक पद
आनन्दघन ने कुछ दार्शनिक पदों की भी रचना की है । यद्यपि आनन्दघन ने दार्शनिक विवादों में न उलझ कर प्रधानतया तर्कातीत आत्माभूति को ही महत्त्व दिया है, तथापि कुछ पदों में जैन तत्त्वज्ञान के मुख्य
१. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ७ ।
२ . वही, पद ६१ ।
३. वही, पद २८ ।
४. वही, पद ३५ ।
५. वही, पद ५३ । ६. वही, पद ७५ ।