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आनन्दघन का रहस्यवाद
उपदेशात्मक पद
आनन्दघन के पदों में लोकमंगल की भावना के भी दर्शन होते हैं । वे जैन परम्परा के श्रेष्ठ सन्त थे । उनकी रचनाओं में मानव के आत्मकल्याण का सन्देश निहित है । इस सम्बन्ध में उन्होंने उदारता, सत्संग, पुद्गल की नश्वरता, दान, लघुता एवं अहंता - त्याग, वैराग्य, नामस्मरण आदि उपदेशात्मक बोधप्रद पदों की रचना की है । उनका सुप्रसिद्ध 'राम कहौ रहिमान कहौ" पद तत्कालीन युग में राम-रहीम, कृष्ण - महादेव तथा पार्श्वनाथ और ब्रह्म में एकता स्थापित करने एवं हिन्दू और मुसलमानों के पारस्परिक मतभेदों को मिटाने का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करता है । 'क्या सोवै उठि जाग बाउरे" पद में आयु की नश्वरता पर जीवमात्र को आनन्दघन का उपदेश है - हे मूढ़ मानव ! अब मोह निद्रा से जागृत हो । आयु अंजलि के जल की भांति दिन-प्रतिदिन क्षीण होती जा रही है । इसी तरह 'या पुद्गल का क्या विसवासा' पद में पुद्गल की नश्वरता का उपदेश है । 'बहेर बहेर नहीं आवे रे अवसर' एवं 'जीउ जाने मेरी सफल घरी'५ वैराग्योत्पादक पद कहे जा सकते हैं । इसी तरह 'हमारी लौ लागी प्रभु नाम' ६ पद में नामस्मरण की महत्ता का दिग्दर्शन होता है । 'अवधू क्या मांगु गुन हीना पद में आनन्दघन ने अपनी आत्मा को सम्बोधित करते हुए लघुता व्यक्त की है और 'साधु संगति बिनु कैसे पड़ परम महारस धाम री ' ' पद में उनके अनुसार सत्संग के बिना आत्मानुभवरूपी महान् रसामृत को नहीं प्राप्त किया जा सकता ।
इस प्रकार, आनन्दघन के पदों में भक्ति, योग, अध्यात्म, दर्शन, ज्ञान, वैराग्य, स्वानुभूति, आत्मानुभव - रस, उदारता, सत्संग-माहात्म्य, शृङ्गार, विरह-मिलन आदि समस्त विषयों का समावेश हुआ है ।
१. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ६५ ।
२. वही, पद १ ।
३. वही, पद १०७ ।
४. वही, पद ४८ ।
५. वही, पद ३ ।
६. वही, पद ७७ ।
७. वही, पद १० ।
८. वही, पद ६२ ।