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आनन्दघन का रहस्यवाद
वास्तविक स्थिति से अवगत हो जाता है और उसी क्षण ममता- नावा, कुमति आदि से मुक्त हो जाता है ।
आनन्दघन ने शुद्ध चेतना रूप समता नारी को एक पतिव्रता आदर्श भारतीय नारी के रूप में चित्रित किया है । इसकी स्पष्ट झलंक हमें निम्नलिखित पंक्तियों में मिलती है
ऋषभ जिनेसर प्रीतम माहरो, और न चाहू रे कंत । रीझ्यो साहब संग न परिहरे, मांगे सादि अनंत ॥'
समता नारी स्पष्ट शब्दों में कहती है कि एक मात्र ऋषभ जिनेश्वर ही मेरे प्रियतम हैं । मैं अन्य किसी को पति रूप में वरण नहीं करती । सन्नारी होने के नाते उसे आशा है कि जब प्रियतम प्रसन्न हो जाएंगे, तो फिर वे कभी भी मेरा साथ नहीं छोड़ेंगे। आनन्दघन के पदों में जहां-जहां समता नारी का चित्रण हुआ है वहां-वहां वह एक सच्ची आदर्श भारतीय नारी का प्रतिनिधित्व करती है । वह सच्ची प्रेमिका है । उसका प्रेम अन्धा नहीं, सजग और निरुपाधिक है । वह अपना प्रेम पाने के लिए अथक प्रयास करती है । अपने पति चेतन से शपथ दिलाकर पूछती है कि हे प्रियतम ! मुझ से दूर रहने के लिए आपको किसने कहा ? आप शीघ्र उसका नाम बतलाइए। आपको बारबार मेरी शपथ है । आपके रूठने से मेरा मन दुःख से घिर गया है। सच बता रही हूँ कि जिसके साथ आप खेल रहे हैं, वह मेरी सौतिन ममता तो संसार की दासी है। वास्तविकता तो यह है कि जो अपना सिर काट कर आपके सामने रख दे अर्थात् जो अपना सर्वस्व आपको समर्पित कर दे वही आपकी पत्नी है । आपकी शपथ खाकर कहती हूं कि जो मैं कहूं वही कर दिखाने वाली हूं । मैं ऐसी नहीं, जो कहे कुछ और करे कुछ और मैं आपके अतिरिक्त अन्य किसी की भी नहीं हूं ।
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आनन्दघन ग्रन्थावली, ऋषभ जिन स्तवन ।
वही, ऋषभ जिन स्तवन ।
वही, पद ४४, ४८ ॥
मेरी सुं मेरी सुं मेरी सु मेरी सौ मेरी री । तुम्ह तं जु कहा दुरी कहो नै सबेरी री ॥ रूठि देखि कै मेरी मनसा दुख घेरी री । जाके संग खेलो सो तो जगत की चेरी री ॥ सिर छेदी आगे धरै और नहीं तेरी री । आनन्दघन की सू ं जो कहू हूं अनेरी री ॥ वही, पद ५१ ।