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आनन्दघन का रहस्यवाद
दोय चोर, दो चुगल, एक त्रिया, चार पुरुष, ' पांच पचीस पचासा आदि संख्यावाचक प्रतीकों का प्रयोग भी आनन्दघन ने खूब किया है । इस प्रकार उनके उपर्युक्त विभिन्न प्रतीकों के विवेचन से विदित होता है कि उनकी प्रतीक पद्धति विलक्षणता पूर्ण है ।
मूर्त तत्त्वों का मानवीयकरण
प्रतीक योजना के अतिरिक्त आनन्दघन ने अमूर्त तत्त्वों का मानवीय - करण भी किया है । मानवीयकरण सूक्ष्म-स्थूल किसी भी वस्तु का हो सकता है । मानवीयकरण उस प्रक्रिया को कह सकते हैं जिसमें अमूर्त तत्त्वों एवं भावों को मानव रूप में चित्रित किया जाता है ।
जैन-परम्परा में उपमिति भव-प्रपंच कथा (सिद्धर्षि), नाटक समयसार ( बनारसीदास) आदि रचनाओं में इस पद्धति का प्रयोग हुआ है जिनमें अमूर्त तत्त्वों एवं भावों को मूर्त रूप में चित्रित किया गया है । सन्त आनन्दघन के रहस्यवादी दर्शन का आधार अध्यात्म है । अतएव इनमें अरूप का रूप-विधान अथवा अमूर्त का मूर्तविधान करने वाली मानवीयकरण की पद्धति का आश्रय लिया गया है और इस प्रकार तत्त्व - चिन्तन का गूढ़ धरातल सरलतम रूप में अभिव्यक्त हुआ है । उन्होंने प्रमुखरूप से चेतन, समता - सुमति, ममता कुमति, श्रद्धा, विवेक और अनुभव का मानवीयरूप में चित्रण कर उनकी विभिन्न प्रवृत्तियों का दिग्दर्शन कराया है । चेतन, विवेक और अनुभव को पुरुष रूप में तथा समता - सुमति, श्रद्धा, सुबुद्धि, ममता कुमति, कुबुद्धि, माया और तृष्णा को नारी रूप में चित्रित किया है । इन सभी अमूर्त भावों को सजीव पात्रों के रूप में चित्रित कर अन्ततः चेतन तत्त्व की अनात्म-तत्त्वों पर विजय दिखलाई है ।
जैनदर्शन के अनुसार आत्मा (चेतन) अनन्त पर्याय वाली है। उनमें मुख्यतः शुद्ध और अशुद्ध दो पर्यायें हैं । अन्य शब्दों में, इसे चेतन की शुद्ध
१. वही, 'पांच अरु तीन प्रिया' - पांच इन्द्रिय और मन, वचन और
काय बल रूप ८ स्त्रियां, दोय चोर - राग और द्वेष, दो चुगलआयुष्य और श्वासोच्छवास, एक त्रिया - एक मनरूप स्त्री, चार पुरुष — क्रोध, मान, माया और लोभ ।
२. वही, पांच पचीस पचासा - पंच महाव्रत, पंच महाव्रत की २५ भावनाएँ तथा ५० प्रकार के तप ।