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आनन्दघन की विवेचन-पद्धति
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ममता माया आदि के चित्रण में आनन्दघन का प्रमुख लक्ष्य हैअनात्मभावों की हेयता को प्रदर्शित करना, क्योंकि चेतन सुदीर्घकाल से इसके मायाजाल में फंसकर निजात्म-स्वरूप को भूल बैठा है। जब तक उसे अनात्म-तत्त्वों की हेयता का भान नहीं होता, तब तक वह स्व-स्वरूप की उपलब्धि नहीं कर सकता ।
निष्कर्ष यह कि आनन्दघन के रहस्यवाद में समता और ममता नारी हृदय के मनोभावों की अच्छी झलक मिलती है । समता और ममता के बीच संघर्ष होता है, किन्तु अन्त में समता की विजय होती है और ममता की पराजय ।
रूपकात्मक पद्धति
रूपक की परम्परा प्राचीन काल से प्रचलित है । वेदों से लेकर वर्तमान साहित्य में किसी-न-किसी रूप में रूपकों का प्रयोग होता रहा है । ऋग्वेद में, देवासुर संग्राम और पुरुरवा का आख्यान रूपक - पद्धति का अच्छा उदाहरण है। ऋग्वेद में रूकात्मक पद्धति के अन्य उदाहरण भी मिलते हैं । रूपकात्मक - शैली का एक सुन्दर उदाहरण इस प्रकार है । " एक बैल है। उसके चार सींग हैं। उसके तीन पैर, दो सिर, सात हाथ हैं । वह कठोर ध्वनि से गर्जन करता है ।"" इसमें बैल के रूपक द्वारा गूढ़ आध्यात्मिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन है । इसी तरह मुण्डकोपनिषद् में दो पक्षियों का रूपक भी प्रसिद्ध है । श्रीमद्भागवत् के चतुर्थ स्कन्ध में पुरजनोपाख्यान रूपक रचना के लिए सुविख्यात है ।
न केवल वैदिक साहित्य में, अपितु जैन साहित्य में भी रूपकों का सर्वाधिक प्रयोग हुआ । रूपक चित्रण में जैन कवियों की भी अपनी एक दृष्टि रही है । ' उपमिति भवप्रपंच कथा' में शुरू से लेकर अन्त तक रूपकात्मकता का असाधारण ढंग से निर्वाह हुआ है ।
सन्त आनन्दघन ने भी रूपक - पद्धति का आश्रय लिया है । यतः उनकी नैश्वयिक दृष्टि आत्मा-परमात्मा के स्वरूप में तात्त्विक अन्तर न देख अभेदात्मकता देखती है, अतः उनके रहस्यवाद में रूपकों का प्रयोग होना
१. कबीर का रहस्यवाद - डा० रामकुमार वर्मा, पृ० ५९ । २. मुण्डकोपनिषद्, ३।१।१।