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आनन्दधन की विवेचन-पद्धति
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मन बुद्धि रूप अन्तःकरण से नहीं प्राप्त किया जा सकता, क्योंकि वह इन सबकी पहुंच से परे है। जैन आगम आचारांगसूत्र में भी यही कहा गया है कि 'तर्क की वहां पहुंच नहीं है, बुद्धि भी उसे ग्रहण करने में असमर्थ है, अतः यह वाणी, विचार और बुद्धि का विषय नहीं'।२ आनन्दघन ने भी उस रहस्यात्मक अनुभूति को विलक्षण बताते हुए कहा है :
आतम अनुभव फूल की, नवली कोउ रीति ।
नाक न पकरै वासना, कान गहै न परतीति ॥३ आत्मानुभवरूपी पुष्प की विलक्षणता ही कुछ निराली है। इसकी सुगन्ध को न नाक ग्रहण कर पाती है और न कान इसका संगीत सुन सकते हैं।
वास्तव में ऐसो रहस्यमय अनुभूतियाँ अनिर्वचनीय होती हैं, यह प्राच्य और पाश्चात्य सभी साधकों ने स्वीकार किया है। वस्तुतः रहस्यानुभूति को यथा तथ्य रूप में साधारण शब्दों द्वारा अभिव्यक्त करना कठिन होता है। फिर भी, रहस्यवादी उसे प्रतीकों, रूपकों, रहस्यात्मक-पद्धतियों आदि के सहारे अभिव्यंजित करने की चेष्टा करते रहे हैं। ___ रहस्यात्मक अनुभूति की अभिव्यक्ति भी रहस्यात्मक ही होती है । सन्त आनन्दधन ने भी अपनी रहस्यात्मक अनुभूतियों को व्यक्त करने के लिए अनेकविध अभिव्यंजना-प्रणालियाँ (विवेचन-पद्धतियाँ) अपनायी हैं। गहराई से देखा जाय तो आनन्दधन की विवेचन-पद्धति का विश्लेषण करना बहुत कठिन है, क्योंकि वह गूढ़ और गम्भीर है। यही कारण है कि 'आनन्दघन बाईसी' पर बालावबोध लिखने वाले मुनि ज्ञानसार को भी कहना पड़ा :
आशय आनन्दघन तणो, अतिगंभीर उदार ।
बालक बांह पसारी जिम, करे उदधि बिस्तार ॥४ आनन्दघन की विवेचन-पद्धति विविधरूपिणी है। उन्होंने यथावसर अनेक पद्धतियों का प्रयोग किया है। उन्होंने प्रतीकों, अमूर्त तत्त्वों के
१. कठोपनिषद्, २।३।२ २. आचारांग, ११५।६ ३. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद २८ । ४. आनन्दघन पद-संग्रह, पृ० २९ ।