________________
आनन्दघन: व्यक्तित्व एवं कृतित्व
९३
सिद्धान्त-आत्मा-परमात्मा, द्रव्य, गुण-पर्याय, उत्पाद, व्यय और धौव्य, नयवाद, अनेकान्तवाद, सप्तभंगीवाद आदि सिद्धान्तों की दार्शनिक विचारणा है। दार्शनिकता से सम्बन्धित आनन्दघन का 'अवधू नटनागर की बाजी " पद ही इतना सचोट एवं गाम्भीर्यपूर्ण है कि उसमें उन्होंने जैनदर्शन के समग्र तत्त्वज्ञान को गागर में सागर की भांति भर दिया है । इसमें द्रव्य, गुण और पर्याय (त्रिपदी रहस्य), अनेकान्तवाद, नयवाद, प्रमाण, सप्तभंगी इत्यादि का वर्णन है । इसी तरह, अन्य पदों में भी निश्चय-व्यवहार नय-द्वय के द्वारा आत्मतत्त्व की विवेचना लक्षित होती है । 'अनन्त अरूपी अविगत सास तो हो पद में आनन्दघन ने सिद्धात्मा के स्वरूप का वर्णन करते हुए उसे अनन्त, अरूपी, अविनाशी, शाश्वत, अविकार आदि बताया है । इस प्रकार, अनेक पदों में ब्रह्म परमात्मा को अखण्ड, निष्कर्म, निरंजन, परमतत्त्व एवं नित्य प्रतिपादित किया गया है तथा उसे अपने घट में ही खोजने और उससे एकता स्थापित करने की बात कही गई है ।
योग-साधनापरक पद
भक्ति एवं विरह-मिलन के
न केवल आनन्दघन में अध्यात्म, दर्शन, चित्र हैं, प्रत्युत अध्यात्म की गहन अनुभूतियों के अनुभव - रस से परिपूर्ण प्रेम-प्याले का पान करनेवाले आनन्दघन जैसे मस्त साधक की आत्मा योग से कितनी रंग गयी है कि देखते ही बन पड़ता है । उनके योगसाधना सम्बन्धी पदों में इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना, ब्रह्मरन्ध्र, अनहदनाद, अष्टांग योग, रेचक, पूरक और कुंभक आदि पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग हुआ है । इसके अतिरिक्त 'आशा औरन की क्या कीजै', ४ तथा 'जग आशा जंजीर की गति उलटी कुल मौर, " आदि पदों में भी यौगिकसाधना का निदर्शन मिलता है।
५
१.
२.
३.
४.
५.
आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ५९ ।
वही, पद १३ ।
वही, पद ७५ ।
वही, पद ५८ ।
वही, पद ५७ ।