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आनन्दधन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व 'पिया बिन सुधि बुधि मूंदीहो, । बिरह भुयंग निसा समै, मेरी से जड़ी खूदीहो।'
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आदि। विरह की भांति मिलन के भी कुछ पद मिलते हैं। इस सम्बन्ध में एकाध पद देना ही पर्याप्त होगा
__ "हैजे मिलिया चेतन चेतना, वरत्यो परम सुरंग ।२ इसी तरह 'आज सुहागिन नारी अवधू',३ पद में समता-प्रिया के आध्या त्मिक साधनारूपी शृंगार का सुन्दर वर्णन है। इसमें 'सिन्दूर', 'मेंहदी' 'अञ्जन', 'चूड़ियाँ' आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है, जो भारतीय संस्कृति वे आदर्श से परिपूर्ण नारी के वर्णन में चारचांद लगा देते हैं। यह आनन्दघन के शब्दों का ही सौष्ठव है जो इतना सुन्दर भाव निखर पड़ा है। आध्यात्मिक पद ___ आनन्दघन के अधिकांश पद किसी-न-किसी रूप में अध्यात्म-विषय से ओतप्रोत हैं। ऐसे पदों में इन्होंने अपनी आध्यात्मिक अनुभूतियों को उड़ेलने का सर्वाधिक प्रयास किया है। आत्मा के निषेधात्मक स्वरूप की विवेचना करते हुये वे कहते हैं कि आत्मा न स्त्री है न पुरुष । वह न लाल है, न पीला और न उसकी कोई जाति है। वह न साधु है और न साधक है। वह न छोटा है और न बड़ा है :
ना हम पुरुष ना हम नारी, वरनन भांति हमारी।
जाति न पांति न साधु न साधक, ना हम लघु नहीं भारी ॥ उनके अनुसार आत्मा रूप, रस, गंध-स्पर्श से रहित है तथा ज्ञान-दर्शनम चिदानन्द स्वरूप है :
ना हम दरसन ना हम फरसन, रस न गंध कछु नाहीं।
आनन्दघन चेतन मय मूरति, सेवक जन बलि जाहीं ॥५ १. आनन्दधन ग्रन्थावली, पद ३२ । २. वही, पद ४१ । ३. वही, पद ८६ । ४: वही, पद ११। ५. वही, पद ११ ।