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आनन्दघन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व यह भी सम्भव है कि आनन्द मानव जीवन की चरम परिणति होने से उन्हें यह उपनाम जान पड़ा हो और अपनी काव्य-कृतियों में उन्होंने स्थानस्थान पर इसी नाम का उल्लेख किया हो। इस सम्बन्ध में इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि आध्यात्मिक आनन्द या मस्ती में डूबकर वे लाभानन्द से आनन्दघन हो गये।
यदि गहराई से सोचा जाय तो इस महान् सन्त के नाम और उपनाम दोनों ही सार्थक हैं। लाभानन्द और आनन्दघन उत्तरोत्तर अध्यात्म के चरमोत्कर्ष का बोध कराते हैं। .
लाभानन्द के मूल नाम की प्रामाणिकता के लिए जो कुछ आधारभूत तथ्य अभी तक प्रकाश में आये हैं, वे इस प्रकार हैं : __ ज्ञानविमल सूरि ने 'आनन्दधन चौबीसी' पर स्तवक (गुच्छ) लिखा है। उस गुच्छ के अन्त में बाईस स्तवनों के समापन में उन्होंने लाभानन्द नाम का संकेत किया है।'
इसी तरह श्रीदेवचन्द्र जी म० ने भी 'विचार रत्नाकर' ग्रन्थ में 'आनन्दघन चौबीसी' के पन्द्रहवें धर्मनाथ जिन स्तवन की छठी गाथा की प्रथम पंक्ति
'प्रवचन अंजन जो सद्गुरु करे, देखे परम निधान' को उद्धृत करते हुए कहा है “एवं श्रीलाभानन्दजी ए कहयुं छे"। तीसरा सूचक उल्लेख डा० कुमारपाल देसाई के शोध-प्रबन्ध में यह मिलता है कि कि पंन्यास सत्यविजय जी के लघु भ्राता लाभानन्द थे और उन्होंने भी क्रियोद्धार के मार्ग को अपनाया था। इस तथ्य की पुष्टि उन्होंने 'श्रीसमेतशिखर तीर्थनां ढालियां' के आधार पर की है। इसकी रचना श्रीवीरविजय जी के शिष्य ने सम्वत् १९६० में की थी। इसमें कहा गया है : १. श्रीलाभानन्दजी कृत स्तवन एतला २२ दीसे छे। यद्यपि हस्ये
(बीजा) तोही आपण हाथे नथी आव्या । उद्धृत-श्रीमहावीर जैन विद्यालय रजत महोत्सव ग्रन्थ, लेख-अध्यात्मी
श्रीआनन्दधन अने श्रीयशोविजय, पृ० २०३ । २. तश्रीमहावीन विद्यालय रजत महोत्सव ग्रन्थ, पृ० २०१