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आनन्दघन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
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दूसरा, उपाध्याय यशोविजय से आनन्दघन आयु में बड़े थे और यशोविजय का जन्म बि० सं० १६७० के आसपास माना गया है। इस तरह, आनन्दघन का जन्म लगभग वि० सं० १६६० माना जा सकता है।
इनके जन्म और मृत्यु की निश्चित तिथि को प्रतिपादित करने वाला कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। अतः उपर्युक्त सभी मन्तव्यों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि आनन्दघन वि०सं० १६६० से वि० सं० १७३० के बीच अवश्य ही विद्यमान रहे होंगे। गुरू-परम्परा
सामान्यतया जैन-सन्त अपनी कृतियों में गुरू-परम्परा का उल्लेख अवश्य करते हैं, किन्तु सन्त आनन्दघन ने ऐसा नहीं किया है और न इनके समसामयिक किसी विद्वान् ने इस सम्बन्ध में संकेत किया है। इससे इनके सम्प्रदाय, दीक्षा, परम्परा आदि पर प्रकाश डालना कठिन होता है। फिर भी, इनकी कृतियों का गहराई से अध्ययन करने पर इतना तो निर्विवाद कहा जा सकता है कि वे श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा के श्रेष्ठ सन्त थे। इस संबन्ध में निम्नलिखित प्रमाण दिये जा सकते हैं। ___ मूर्तिपूजक श्वेतांबर परंपरानुसार, आनन्दघन ने सुविधिजिन स्तवन में भावपूजानुलक्षी द्रव्यपूजा के विविध भेद, दशत्रिक, पांच अभिगम आदि प्रभु-दर्शन-पूजन प्रकिया का विधिवत् आगमानुसार उल्लेख किया है।' उन्होंने प्रस्तुत स्तवन में द्रव्यपूजा एवं भाव पूजा के विविध प्रकारों का जो वर्णन किया है, वह मात्र श्वेतांबर संप्रदाय में ही प्रचलित है। दिगम्बर-परंपरा में प्रचलित द्रव्य-पूजन की प्रक्रिया दिगम्बर-परंपरा से सर्वथा भिन्न है। इससे यह स्पष्ट होता है कि वे श्वेतांबर-मूर्तिपूजकपरंपरा में ही दीक्षित हुए होंगे।
दूसरा प्रमाण प्रस्तुत करते हुए नमिजिन-स्तवन उद्धृत किया जा. सकता है
चूरणि भाष्य सूत्र नियुक्ति, वृत्ति परंपर अनुभव रे। समय पुरुष नां अंग कहयाए, जे छेदे ते दुरभव रे। १. सुविधि जिन स्तवन, आनंदघन गन्थावली । २. नमिजिन स्तवन, आनन्धन गन्थावली ।