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आनन्दघन का रहस्यवाद
संयोग से उनकी प्रणामी सम्प्रदाय के एक साधु से मुलाकात हो गई। तब बातचीत के दौरान उन्होंने बताया कि हमारे मत के संस्थापक प्राणलाल जी महाराज के जीवन चरित्र में यह उल्लेख मिलता है कि वे १७३१ में मेड़ता गए तब वहाँ आनन्दघन जी उपनामधारी जैन मुनि लाभानंद जी से उनका समागम हुआ और उसी वर्ष निधन हो गया।
श्रीअगरचंद नाहटा भी प्राणनाथ सम्प्रदाय के 'निजानन्दचरित्र' के आधार पर यह अनुमान लगाते हैं कि उनका स्वर्गवास सम्वत् १७३१ में हुआ।२ नाहटाजी की भाँति महताबचंद खारैड भी 'निजानंद चरित्र' को आधार मानकर यह सम्भावना व्यक्त करते हैं कि मेड़ता में आनंदघन का स० १७३१ में देहोत्सर्ग हुआ। इसकी पुष्टि के लिए उन्होंने 'आनंदघन ग्रन्थावली' में 'निजानन्द चरितामृत' का एक उद्धरण भी प्रस्तुत किया है।'
आनन्दघन के देहोत्सर्ग के लिए यह प्रमाण अब तक निर्विवाद रूप से स्वीकार किया जाता रहा, किन्तु इस प्रमाण का मूलाधार देखने पर ज्ञात होता है कि यति सन्यासी लाभानंद-आनंदघन ही थे, ऐसा उल्लेख इसमें कहीं पर भी नहीं मिलता। 'निजानंद चरितामृत' में लाभानंद नामक सन्यासी-यति के सम्बन्ध में मात्र इतना ही संकेत मिलता है :
"इधर श्रीजी जब पालनपुर से आगे बढ़े तो मार्ग में उपदेश करते हुए मारवाड़ के 'मेरता' शहर में पहुंचे। यहाँ पर एक लाभानंद नाम का यति संन्यासी रहता था। उसके साथ जान-ची होने लगी। वह योगविद्या और चमत्कारिक प्रयोगों में बहुत प्रवीण था। उसके साथ लगभग दस दिवस तक ब्रह्मज्ञान होता रहा। अंत में जब पराजित हो गया तो श्रीजी के ऊपर बहुत क्रोध किया। तन्त्र-मन्त्रों के प्रभावों से पहाड़-पत्थर उठाकर श्रीजी को दबाकर मार डालने का उपाय करने लगा। बहुत कुछ तन्त्र-मन्त्र किए, परन्तु श्रीजी के ऊपर उसका एक भी जोर न चला।' १. श्रीआनन्दनघन-चौबीसी, सम्पा० प्रभुदास बेचरदास पारेख, प्रथम
संस्करण, पृ० १९ । २. आनन्दघन ग्रन्थावली, प्रासंगिक वक्तव्य, पृ० ३१ । ३. वही, पृ० ७७। १. निजानन्द चरितामृत, पं० कृष्णदत्त शास्त्री, पृ० ५१८-१९ ।