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आनन्दघन: व्यक्तित्व एवं कृतित्व
तदनंतर दूसरी बार जब प्राणलालजी म० मेड़ता आए तब लाभानन्द का स्वर्गवास हो चुका था । आनन्दघन जैसे आध्यात्मिक सन्त का व्यर्थ की ज्ञान चर्चा में उलझना और पराजित होने पर कुपित होकर तन्त्र-मन्त्र से विरोधी को मार डालने का प्रयास करना आदि बातें उनके चरित्र के साथ मेल नहीं खाती हैं । सम्भवतः अपने प्रवर्तक की महिमा को अतिरंजित रूप में प्रस्तुत करने की दृष्टि से ही उक्त कथन किया गया है। आनन्दघन ग्रन्थावली में यद्यपि श्रीअगरचंद नाहटा और महताबचंद दोनों 'निजानंद चरितामृत' को निश्चित प्रमाण मानकर चले हैं किंतु यह यथार्थ नहीं कहा जा सकता ।
'निजानंद चरितामृत' में जिस तरह प्राणलाल जी महाराज का जीवन चरित्र उल्लिखित है, उसी तरह स्वामी लालदासजी ने भी 'वीतक' में प्राणलालजी महाराज को धर्मयात्रा का वर्णन किया है और उसमें लाभानन्द नामक यति से चर्चा होने का निर्देश है ।" किन्तु उसमें भी आनन्दघन या लाभानन्द के स्वर्गवास का कोई संकेत नहीं मिलता। अतः उक्त कथनों के आधार पर यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि आनन्दघन का स्वर्गवास वि० सं० १७३१ में मेड़ता में ही हुआ । इस सम्बन्ध में जब तक कोई ठोस प्रमाण उपलब्ध न हो, अन्तिमरूप से कुछ भी कहना कठिन है ।
कृतित्व
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मध्यकालीन हिन्दी साहित्य के विकास में आध्यात्मिक सन्त आनन्दघन का योगदान बहुत महत्त्वपूर्ण है । इनकी रचनायें आध्यात्मिक हिन्दी - साहित्य की अनुपम कृतियाँ हैं । अपने युग के अनुरूप आनन्दघन ने भी तत्कालीन हिन्दी भाषा में आध्यात्मिक पदों का सृजन किया । उनका मुख्य उद्देश्य अपनी आध्यात्मिक रहस्यानुभूतियों को जन-नाधारण तक पहुँचाना था । आज इनकी कृतियाँ आध्यात्मिक - जगत् में आदरपूर्वक पढ़ी जाती हैं । यद्यपि इनकी काव्य-कृतियाँ संख्या की दृष्टि से अत्यल्प हैं, फिर भी इन्होंने अपने पदों और स्तुतियों में गागर में सागर भर दिया है ।
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श्रीक-स्वामी जी प्रकरण ३३, ४२-४७ वीं पंक्ति ।
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