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आनन्दघन का रहस्यवाद
जैन श्वेतांबर मूर्तिपूजक-परंपरा ही ४५ आगमों और उन पर पूर्वाचायाँ द्वारा लिखित चूर्णि, भाष्य, सूत्र, नियुक्ति, वृत्तिआदि को मान्य करती है। श्वेतांवर-परंपरा में स्वीकृत आगमों को दिगमंबर-परंपरा में मान्य नहीं किया गया है। इसलिए उन पर लिखे गये चूर्णि, भाष्य, सूत्र आदि को तो मानने का प्रश्न ही नहीं उठता। दूसरी ओर, आनन्दघन के समय में अमूर्तिपूजक स्थानकवासी संप्रदाय का प्रादुर्भाव हो चुका था जिनमें से लवजी ऋषिजी, धर्मदास जी और धर्मसिंगजी इन तीनों ने चूर्णि, भाष्य आदि को अस्वीकार कर ४५ आगमों से मात्र ३२ आगम मान्य किए थे । यह परंपरा मूर्तिपूजा को भी स्वीकार नहीं करती थी। यही कारण था कि आनन्दघन को कहना पड़ा कि जो चूर्णि, भाष्य, नियुक्ति आदि को स्वीकार नहीं करता है वह सिद्धांत-पुरुष के अंगों का छेदन करता है और दुर्भव्य बनता है। इससे प्रतीत होता है कि आनंदघन दिगम्वर और स्थानकवासी-परंपरा में दीक्षित न होकर श्वेताबर-मूर्तिपूजक-परंपरा में ही दीक्षित हुए होगे।
श्वेताम्बर-मूर्तिपूजक-परम्परा में भी अनेक भेद-गच्छ हैं। यथा-तपागच्छ, खतरगच्छ, अंचलगच्छ, कड़वागच्छ आदि । परन्तु इनमें भी विशेषरूप से तपागच्छ और खतरगच्छ अधिक प्रचलित हैं। प्रश्न यह है कि आनन्दघन किस गच्छ में दीक्षित हुए थे? इस प्रश्न पर विद्वानों में मतभेद है। यद्यपि इस सन्दर्भ में कोई ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है, तथापि इस प्रकरण में विद्वानों द्वारा प्रस्तुत प्रमाणों की विवेचना अपेक्षित है।
श्रीअगरचन्द नाहटा का कथन है कि आनन्दघन मूलतः खतरगच्छ में दीक्षित हुए और इसके लिए 'आनन्दघन ग्रन्थावली' में उनके द्वारा तीन प्रमाण दिए गए हैं।
प्रथम तर्क यह दिया गया है कि खतरगच्छ के समर्थ आचार्य जिन कृपाचन्द्र सूरि बीसवीं शती में हो चुके हैं जिन्होंने बुद्धिसागर सूरि को आनन्दघन के सम्बन्ध में कहा था कि वे मूलतः खतरगच्छ में दीक्षित हुए हैं। लेकिन यह तर्क ठोस नहीं, क्योंकि इसके लिए आचार्य कृपाचन्द्र सूरि ने कोई प्रामाणिक आधार प्रस्तुत नहीं किया है। इतना कह देने मात्र से कि वे खतरगच्छ में दीक्षित हुए थे, हमें इसका कोई ठोस प्रमाण नहीं मिल पाता । आचार्य जिनकृपाचन्द्र सूरि द्वारा आचार्य बुद्धिसागर सूरि को
१. आनन्द ग्रन्थावली, पृ० २१-२२ ।