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आनन्दघन व्यक्तित्व एवं कृतित्व
बताए जाने के बावजूद स्वयं आचार्य बुद्धिसागर सूरि ने लिखा है कि आनन्दघन तपागच्छ में दीक्षित हुए थे और उनका उपनाम लाभानन्द था।'
श्रीअगरचन्द नाहटा दूसरा तर्क यह देते हैं कि आनन्दघन का मूल नाम लाभानन्द था और लाभानन्द में जो 'आनन्द' नामान्त पद है वह खतरगच्छीय चौरासी नन्दियों में पाया जाता है। उनका यह भी कथन है कि उन्नीसवीं सती में खतरगच्छ में लाभानन्द, नामक एक अन्य साधु हो चुके हैं। आशय यह कि खतरगच्छ के अतिरिक्त अन्य गच्छ में लाभानन्द नाम रखने की परम्परा नहीं रही है। इसी आधार पर उन्होंने आनन्दघन को खतरगच्छीय परम्परा का सिद्ध किया है। किन्तु उनका यह तर्क ऐतिहासिक दृष्टि से समुचित नहीं कहा जा सकता, क्योंकि 'आनन्द', नामान्त पद का प्रयोग तपागच्छ में भी हुआ है। जैसे, चिदानन्द, विजयानन्द आदि।
तीसरा तर्क वे यह देते हैं कि मेड़ता से उपाध्याय पुण्य कलश मुनि, जयरंग, चारित्रचंद आदि द्वारा एक पत्र सूरत में विराजित खतरगच्छ के पूज्य श्रीजिनचन्द्रभूरि को भेजा गया। उसमें आनन्दघन के सम्बन्ध में निम्नलिखित उल्लेख मिलता है : “पं० सुगनचन्द्र अष्टसहस्त्री लाभानन्द आगइ भणइ छई । अर्द्धरइ टाणइ भणी, धणु खुशी हुई भणावइ छइ" ।'
यह पत्र नाहटाजी को आगम प्रभाकर मुनि पुण्य विजय जी के पास देखने को मिला था। मुनि पुण्यविजयजी के समस्त पत्रों का संग्रह अहमदाबाद के श्री लालभाई-दलपत भाई (ला० द० भा०) संस्कृति विद्यामंदिर में सुरक्षित हैं, लेकिन नाहटा द्वारा उल्लिखित कोई पत्र उसमें नहीं है।
आनन्दघन तपागच्छ में दीक्षित हुए थे इस पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए जा सकते हैं : ___आचार्य बुद्धिसागर सूरि के अभिमतानुसार आनन्दघन तपागच्छ में दीक्षित हुए थे और उनका नाम लाभानंद था। १. श्रीआनन्दघन पद-संग्रह, पृ० १२५ ।
आनन्दघन ग्रन्थावली, पृ० २२ ।
आनन्दघन एक अध्ययन, पृ० २६ । ४. श्रीआनन्दघन पद-संग्रह, पृ० १२५ ।