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आनन्दघन का रहस्यवाद
स्मति से नाम-साम्यवाले कवियों के पदों को उनमें जोड़ देते हों. क्योंकि उनके सामने यह लक्ष्य रहता था कि जितने पद अधिक लिखे जाएँगे उतने ही अधिक पैसे प्राप्त होंगे। दूसरे, लिखनेवाले जैन लेखक हो रहे होंगे. यह भी नहीं कहा जा सकता। यह भी सम्भव है कि किसी इतर धर्मावलम्वी लिपिक ने पद लिखे हों और लिखते समय कृष्ण सम्बन्धी अन्य पद भी उसकी स्मृति में आ गए हों, इसलिए उसने अपनी ओर से उनकी रचनाओं में कुछ पद जोड़ दिए हों।
अतः उपर्युक्त तर्कों के आधार पर, केवल तीन कृष्ण-भक्तिपरक पदों के आधार पर आनन्दघन और घनानन्द के एक होने की संभावना तथा आनन्दघन के श्याम की भक्ति में लीन होने की बात निरस्त हो जाती है।
रचना-काल के आधार पर भी आनन्दघन घनानन्द से भिन्न ठहरते हैं। 'श्रीमहावीर जैन विद्यालय-रजत महोत्सव-संग्रह' में प्रकाशित 'अध्यात्मी आनन्दघन अने श्री यशोविजय' शीर्षक लेख के अनुसार चौबीसी का रचनाकाल सं० १६७८ के लगभग है।' डा० कुमारपाल देसाई ने अपनी पुस्तक में जिन हस्तलिखित प्रतियों का उल्लेख किया है उनमें 'आनन्दघन बाईसी' की सबसे प्राचीन हस्तलिखित प्रति का लेखन वर्ष वि० सं० १७५१ है२ और 'आनन्दघन ग्रन्थावली' के पद-क्रम दर्शक विवरण-पत्र में सबसे प्राचीन प्रति का समय सं० १७५६ दिया है। इसका अर्थ यह है कि आनन्दधन सं० १७५१ या १७५६ के बहुत पहले हुए होंगे, क्योंकि उनके पदों के लोक-प्रचलित होने में तथा लोगों के द्वारा हस्तलिखित प्रति तैयार कराये जाने में कुछ समय तो लगा ही होगा। इससे यह बात भी पुष्ट होती है कि उनका देहान्त सं० १७३१ के लगभग हो गया होगा। इस आधार पर उनका जन्म सं० १६६० के आसपास और चौबीसी का रचनाकाल १६८० के आसपास माना जा सकता है। उपर्युक्त प्रमाणों को देखते हुए यह ठीक भी है, जबकि घनानन्द का जन्म वि० सं० १७४६ के लगभग एवं मृत्यु सं० १८१७ में मानी गई है। अतः काल के आधार पर दोनों के एक होने की संभावना निर्मूल सिद्ध होती है। १. श्रीमहावीर जैन विद्यालय-रजत महोत्सव ग्रन्थ, लेख-"अध्यात्मी
श्रीआनन्दघन अने श्रीयशोविजय," पृ० २०३ । २. आनन्दघन : एक अध्ययन, पृ० १३३ । ३. आनन्दघन ग्रन्थावली, पृ० ३ ।