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आनन्दधन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
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आनन्दघन की भाषा राजस्थानी मिश्रित गुजराती है, क्योंकि इनका विचरण पश्चिमी राजस्थान एवं उत्तरी गुजरात में ही अधिक हुआ है । 'आनन्दघन चौबीसी' की भाषा तो विशुद्ध पुरानी गुजराती है और पदों मैं राजस्थानी भाषा का प्रभाव परिलक्षित होता है, जबकि घनानन्द के काव्यों में ब्रजभाषा का स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगत होता है । इनकी कुछ रचनाओं में पंजाबी भाषा का भी प्रभाव देखा जाता है । यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि इनका अधिकांश समय देहली एवं ब्रज प्रदेश में 'बीता। इन्हें ब्रजभाषा प्रवीण भी कहा गया है। इस प्रकार, भाषा-शैली की दृष्टि से भी दोनों एक नहीं हैं ।
दोनों के भिन्न-भिन्न होने का एक महत्त्वपूर्ण आधार यह भी है कि आनन्दघन और घनानन्द के काव्य-विषय एवं शैली सर्वथा भिन्न हैं । घनानन्द अपने काव्यों में अधिकांशतः 'सुजान' शब्द का प्रयोग करते हैं जबकि आनन्दघन ने अपनी कृतियों (आनन्दघन चौबीसी एवं पदों) में कहीं भी 'सुजान' शब्द का नामोल्लेख नहीं किया है। इसके स्थान पर उन्होंने अपनी कुछ ही रचनाओं में 'समता' का उल्लेख किया है। इतना ही नहीं, आनन्दघन ने अपनी कृतियों के अन्त में उपनाम 'आनन्दघन'
अतिरिक्त किसी अन्य शब्द का प्रयोग नहीं किया है, जबकि घनानन्द ने अपनी कृतियों में 'घनानन्द' के अतिरिक्त 'अनंदघन', 'आनन्दघन' का प्रयोग भी किया है । घनानन्द ने 'घनआनन्द कवित्त', 'सुजानहित', 'सुजान विनोद', 'इश्कलता', 'कोकसार', 'वियोग बेलि' आदि कृतियों की रचना की । इन कृतियों से ही स्पष्ट है कि घनानन्द की कृतियां अध्यात्मप्रधान न होकर शृंगार-प्रधान अथवा रीति विषयक हैं ।
आनन्दघन का प्रतिपाद्य विषय आत्मा-परमात्मा है । इनके काव्यों में कहीं भी अध्यात्म-भक्ति, योग के अतिरिक्त विषय-वासना की गंध तक नहीं है । यद्यपि कुछ पद विरह व्यथा से सम्बद्ध अवश्य हैं, तथापि यह विरहवेदना आत्मा-परमात्मा या चेतन समता की है, वैषयिक नहीं ।
दोनों के भिन्न-भिन्न होने का कालिक आधार भी है | आनन्दघन उपाध्याय यशोविजय के समकालीन थे जिनका समय सं० १६७० से १७४५ माना गया है, ' जबकि घनानन्द नागरीदास के समसामयिक थे । इन
१. आनन्दघन ग्रन्थावली, पृ० १४ ।