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आनन्दघन का रहस्यवाद
"ब्रजनाथ' की ओर आकर्षित हुआ और वे 'श्याम' की भक्ति में लीन हो गए। किन्तु क्षितिमोहन सेन ने घनानन्द और आनन्दघन में अभेद बताने के लिए जिन पदों को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया है, उनके जैन सन्त कवि आनन्दघन द्वारा रचित होने में भी शंका है ।
महताबचन्द खारैड द्वारा सम्पादित 'आनन्दघन ग्रन्थावली' में पदक्रम दर्शक विवरण-पत्र दिया गया है। यह विवरणपत्र २ मुद्रित और ९ हस्तलिखित प्रतियों के आधार पर दिया गया है। उसे देखने से ज्ञात होता है कि 'ब्रजनाथ से सुनाथ विण' यह पद हस्तलिखित ९ प्रतियों में से केवल चार प्रतियों में उपलब्ध है, शेष पाँच प्रतियों में यह पद नहीं है। इसी तरह ‘साइंडा दिल लगा है बंशीवारे सू' यह पद भी हस्तलिखित नौ प्रतियों में से केवल एक प्रति में ही मिलता है। तीसरा 'हरि पतितन के उद्घारण' पद हस्तलिखित नौ प्रतियों में से केवल पाँच प्रतियों में ही है, शेष में नहीं। यह इस बात का सूचक है कि ये पद मूलतः जैन कवि आनन्दघन के नहीं हैं। सम्भव है कि प्रतिलिपि करनेवालों ने कृष्ण-भक्त आनन्दघन के इन लोकप्रचलित पदों को नाम-साम्य के कारण उनमें बाद में जोड़ दिया हो। 'साइंडा दिल लगा बंशीवारे सू' नामक जिस पद के आधार पर आनन्दघन को जिन-भक्त से कृष्ण-भक्त बनने का दावा किया जाता है, वह तो हस्तलिखित प्रतियों में से मात्र एक ही प्रति में मिलता है। इससे उसके आनन्दघन रचित होने में सन्देह स्वाभाविक है।
मात्र इन दो तीन पदों के आधार पर आनन्दघन को कृष्ण-भक्त सिद्ध करना सर्वथा असंगत है। यदि आनन्दघन कृष्ण-भक्त होते तो उनके अधिकांश पद कृष्ण या ब्रज या हरि से सम्बद्ध होते या उनमें इनका नामोल्लेख होता?
दूसरी ओर, 'आनन्दघन-चौबीसी' तो विशुद्ध रूप से उन्हें जैनपरम्परा को सूचित करती है। उसमें जैन-परम्परा के चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति की गई है। आनन्दघन के अनेक पद जैन तत्त्वज्ञान से ही सम्बद्ध हैं।
२.
आनन्दघन ग्रन्थावली, पृ० २-१६ ।