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आनन्दघन का रहस्यवाद
तेमना लघु भाई लाभानन्द जी, ते पण क्रिया उद्धार जी । कपुरविजय क्षमा सुजस विजय बुध, शुभ विजय गुणधार जी ॥ १
लाभानन्द नाम को सिद्ध करने का एक और आधार हमें आनन्दघन के निम्नांकित पदों में मिलता है । आनन्दघन ने अत्याबाध आनन्दानुभूति का वर्णन करते हुए लाभानन्द नाम का संकेत किया है : ' नाम आनन्दघन लाभ आनन्दघन' ।' तथा 'लाभानन्द' भले नेह निवारई, सुखीय होई नर सोईर इन दोनों पदों की अन्तिम पंक्ति में आनन्दघन ने ' लाभ आनन्दघन' और ‘लाभानन्द' कहकर सम्भवतः अपना दीक्षितावस्था का लाभानन्द नाम सूचित किया है ।
नामसाम्यवाले अन्य कवि और आनन्दघन
हिन्दी साहित्य में, प्रारंभ में जैन कवि सन्त आनन्दघन के सम्बन्ध में अनेक भ्रान्त धारणाएँ प्रचलित थीं, क्योंकि जैन कवि आनन्दघन के अतिरिक्त नन्दगांववासी आनन्दघन 'काकमंजरी' के रचयिता कवि आनन्द और वृन्दावन वासी घनानन्द (आनन्दघन ) नाम के तीन अन्य कवि भी हुए हैं । नाम - साम्य के कारण इन्हें एक समझने की भूल होती रही । प्रारम्भ में नन्दगांववासी आनन्दकवि और वृन्दावनवासी घनानन्द कवि एक ही समझे जाते रहे । यही नहीं वृन्दावनवासी घनानन्द और जैन कवि सन्त आनन्दघन में भी नाम साम्य होने के कारण दोनों के एक होने की संभावना की जाने लगी । इस धारणा की पुष्टि का कुछ प्रयत्न भी हुआ जिसमें जैन कवि आनन्दघन के बारे में कई विचित्र कल्पनाएँ की गईं । किन्तु उपलब्ध तथ्यों के आधार पर अब इतना तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि ये चारों ही पृथक्-पृथक् व्यक्ति हैं ।
१. 'श्रीसमेतशिखर तीर्थानां ढालियां' - सं० पू० आ० श्रीविजयपद्मसूरि कलश गाथा १४, पृ० १४७ - १६६, उद्धृत आनन्दघन एक अध्ययन, पृ० १७ ।
२.
आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ७३ ।
३. आनन्दघन ग्रन्थावली, पृ० ३८ पर ( इति प्रीतिनिवारण सिझाय१८वीं शती की लिखित प्रति से) उद्धृत ।