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रहस्यवाद : एक परिचय
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नहीं जानता । बात एक ही है, क्योंकि सबका जानना, एक आत्मा के जाने से होता है । इसलिए आत्मा का जानना और सबका जानना एक है । तात्पर्य यह कि जो सबको नहीं जानता, वह एक आत्मा को भी नहीं
जानता ।
रहस्य - भावना का मूल जिज्ञासा का तत्त्व भी आचारांग में स्पष्टतः उपस्थित है । आचारांग का प्रारम्भ आत्म-जिज्ञासा से होता है जो रहस्यभावना का मूल बीज है । इसका प्रथम सूत्र है
के अहं आसी ?
के वाइओ चुओ इह पेच्चा भविस्सामि । '
'मैं कौन था,' 'मैं अगले जन्म में क्या होऊँगा ?' आदि । जिज्ञासा का अन्तर्मन में उठना सम्यग्दर्शन-प्राप्ति का प्रथम चरण है । यह नितान्त सत्य है कि रहस्य के प्रति जिज्ञासा की भावना उद्भूत होती है तभी साधक व्यवहार की भूमिका से ऊपर उठकर वास्तविकता की खोज में अग्रसर होता है । इसीलिए आत्मशोधन की प्रणाली 'गूढ़' कहलाती है । संक्षेप में, 'रहस्यवाद (गूढ़वाद) का मर्म आत्मा की शोध है । उसे पा लेने के बाद फिर कुछ भी पाना शेष नहीं रहता, गूढ़ नहीं रहता । २
रहस्यदर्शी (आत्मदर्शी) तीर्थंकरों के बाद परवर्ती काल में भी आध्यात्मिक रहस्यवादी जैन सन्त-साधकों एवं कवियों की एक लम्बी परम्परा रही है जिनमें प्रमुख रूप से आचार्य कुन्दकुन्द (विक्रम की पहली से चौथी शती के बीच), मुनि कार्तिकेय (लगभग २७ वीं शती), पूज्यपाद (विक्रम की ५-६ शती), योगीन्दु मुनि (लगभग ईसा की छठीं शती), मुनि रामसिंह (११वीं शताब्दी), आचार्य हरिभद्र (८वीं शताब्दी), बनारसीदास ( १७वीं शताब्दी), आनन्दघन ( १७वीं शती) तथा उपाध्याय यशोविजय (१८वीं शती) आदि का नाम उल्लेखनीय है ।
जैन-साहित्य में रहस्यवादी काव्य रचना का प्रारम्भ आचार्य कुन्दकुन्द से माना जाता है। इनकी समयसार, भोक्षपाहुड़, भावपाहुड़, आदि अनेक रहस्यवादी रचनाएँ हैं जिनमें भावात्मक अनुभूति अभिव्यक्त हुई है । मोड़ में इन्होंने आत्मा के तीन भेदों की चर्चा करते हुए कहा है कि अन्तरात्मा के उपाय से बहिरात्मा का परित्याग कर परमात्मा का ध्यान
१. आचारांग १।१।१
२. जैनदर्शन मनन और मीमांसा, पृ० ४३९ ।