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रहस्यवाद : एक परिचय
निज स्परूप जे किरिया साधै, तेन अध्यातम लहिए रे । जे किरिया करी चउगति साधै, तेन अध्यातम कहिए रे ॥ साधक स्व-स्वरूप के अनुरूप ( स्वरूपानुलक्षी) आचार की जो साधना - क्रिया करता है, उसे ही 'अध्यात्म' की संज्ञा दी जा सकती है इसके विपरीत, निज-स्वरूप से हटकर पररूप की जो क्रिया करता है और परिणामतः तिरूपं भव-भ्रमण होता है, ऐसी क्रिया को 'अध्यात्म' नहीं कहा
जा सकता ।
इसी सन्दर्भ में अध्यात्म के विविध रूपों की विवेचना करते हुए उनका कथन है
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नाम अध्यातम ठवण अध्यातम द्रव्य अध्यातम छंडो रे । भाव अध्यातम निज-गुण साधै, तो तेहशुं रढ़ मंडो रे ॥२ अध्यात्म चार प्रकार का है
१. नाम - अध्यात्म,
२. स्थापना - अध्यात्म,
३. द्रव्य - अध्यात्म, ४. भाव -अध्यात्म |
और
आनन्दघन ने स्पष्टतः इनमें से प्रथम तीन को छोड़ने और भाव -अध्यात्म को अपनाने पर बल दिया है । भाव -अध्यात्म से अभिप्राय है - ज्ञान-दर्शनचारित्ररूप अमिकों की साधना । वस्तुतः इसमें अध्यात्म का सांगोपांग विश्लेषण और हेय उपादेय का विवेक प्रस्तुत किया गया है ।
श्रेयांसजिन स्तवन ।
उपाध्याय
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के अनुसार 'अध्यात्म' का लक्षण इस प्रकार है— 'आत्मानमधिकृत्य प्रवर्तते इत्यध्यात्मम् ' ' – अर्थात् जो आत्मा के स्वरूप को लेकर प्रवृत्त हो वह 'अध्यात्म' है । ऐसे भाव -अध्यात्म को ग्रहण करने पर ही आत्मोपलब्धि सम्भव है । भाव -अध्यात्म की क्रिया.
१.
२. वही ।
३.
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गत मोहाधिकाराणामात्मानमधिकृत्य या । प्रवर्तते क्रिया शुद्धा तदध्यात्मं जगुर्जिनाः ॥
--अध्यात्मसार, अधिकार २, श्लो० २ ।