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आनन्दधन का रहस्य वाद
आनन्दघन अपनी साधक आत्मा से कहते हैं कि साधक ! तेरा कोई आदर सत्कार करे तो क्या, और निरादर-तिरस्कार करे तो क्या ? तेरा आत्म-धर्म तो समता है। तुझे दोनों स्थितियों में समभाव रखना है। इससे तेरे आत्मगुण में कोई वृद्धि या ह्रास होने वाला नहीं है। इसलिए किसी के द्वारा निन्दा या प्रशंसा करने पर तू खिन्न या तुष्ट न हो, क्योंकि साधक का यह आवश्यक गुण है कि वह दोनों अवस्थाओं में सन्तुलित रहे। ___ चित्त-विक्षोभ और विकलता ही हमें आध्यात्मिक आनन्द से वंचित रखती हैं। जिसे आत्मानन्द की अनुभूति करना हो, उसे चित्त को निर्विकल्प बनाना होगा और तदर्थ समभाव की साधना करनी होगी। आनन्दघन इसी समभाव का मार्मिक विश्लेषण करते हुए कहते हैं :
सर्व जग जंतु नै सम गिणै, गिणै तृण मणि भाव रे। .
मुगति संसार बुधि सम धरै, मुणै भव-जलनिधि नाव रे ।' साधक शत्रु-मित्र ही नहीं, अपितु प्राणीमात्र के प्रति आत्मतुल्य दृष्टि रखे । तृण और बहुमूल्य रत्न दोनों को पुद्गल ही समझे। प्रतीत होता है कि आनन्दघन की समदर्शिता पराकाष्ठा पर पहुँच गई थी। उन्हें आत्मानन्द का वह स्रोत उपलब्ध हो गया था जिसमें मुक्ति की आकांक्षा भी मिट जाती है । उनके लिए मुक्ति और संसार दोनों समभाव में समा गए थे। निःस्पृह साधक ___ आनन्दघन निःस्पृह साधक थे। प्रायः जंगलों, गुफाओं में वास करते । उनके साथ कोई आडम्बर नहीं था। उनकी दृष्टि में आत्मिक-गुणों में रमण करते हुए निष्काम और निःस्पृह जीवन जीना ही साधुत्व की साधना का सार है। वे लिखते हैं :
सयल संसारी इन्द्रियरामी, मुनिगण आतमरामी रे ।
मुख्य पणे जे आतमरामी, ते केवल निक्कामी रे ॥२ सांसारिक व्यक्ति वैषयिक सुखों में आनन्द मानता है, जबकि साधु निज गुणों में ही रमण करता है। आत्मार्थी साधक किसी प्रकार की कामना
१. वही। २. श्रेयांस जिन स्तवन, आनन्दघन ग्रन्थावली ।