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द्वितीय श्रध्याय
आनन्दघन: व्यक्तित्व एवं कृतित्व
जैन सन्त कवियों में अध्यात्म योगी आनन्दघन का नाम सुविख्यात है । उनके पद इतने लोकप्रिय हैं कि वे जैन श्रावक-श्राविकाओं एवं साधकों की दैनिक उपासना के अंग बन गए हैं । आनन्दघन की काव्यकृतियां सरल, भावपूर्ण, तत्त्वबोधमय तथा मार्मिक हैं। उनके पदों में व्यक्ति की चेतना को झकझोर देने की सामर्थ्य है, क्योंकि वे उनकी सहज अनुभूति से निःसृत हैं। आनन्दघन का आन्तरकि उनकी काव्यकृतियों में व्याप्त है । उनके काव्य में कबीर का अक्खड़पन, सूर की सरलता दोनों का मधुर संगम है ।
श्रध्यात्म के प्रालोक
आनन्दघन 'यथानाम तथा गुण' की उक्ति चरितार्थ करते हैं । वे आध्यात्मिक जीवन के जगमगाते प्रकाश-पुंज हैं, यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा । उन्होंने आत्मिक आनन्द का जो झरना बहाया है, जन-जन की आध्यात्मिक तृषा शान्त कर देता है ।
वह
उनकी सन्त प्रकृति, कवित्व शक्ति, विद्वत्ता एवं परम निजानन्द की मस्ती से सम-सामयिक एवं परवर्ती सन्त और विद्वान् प्रभावित हैं । उनकी आध्यात्मिकता से, उनके समकालीन उपाध्याय यशोविजय जैसे महान् प्रतिभासम्पन्न विद्वान् असाधारण रूप से प्रभावित थे । उन्होंने अपने हृदयोद्गार व्यक्त करने के लिए आनन्दघन की प्रशस्ति में एक अष्टपदी ही रच डाली जिनके कुछ अंश इस प्रकार हैं
:
एरी आज आनंद भयो मेरे, तेरो मुख निरख - निरख, रोम रोम सीतल भयो अंग अंग || एरी० ॥
सुद्ध समझण समता रस झीलत, आनंदघन भयो अंतस रंग ॥ ऐसी आनंद दशा प्रकटी चित अंतर, ताको प्रभाव चलत निरमल गंग ॥ वाही गंग ममता दोउ मिल रहे, 'जसविजय' सीतलता के संग ॥ आनन्दवन के संग सुजन ही मिले जब, तब आनंद सम भयो 'सुजस' । पारस मंग लोहा जे फरसत, कंचन होत ही ताके कस || १ ||