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रहस्यवाद : एक परिचय
स्तवन में अध्यात्म की सम्यक् मीमांसा कर अध्यात्मशास्त्र का नवनीत प्रस्तुत कर दिया है ।
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इस प्रकार, सन्त आनन्दघन की रचनाओं में, भावनात्मक पक्ष में दाम्पत्यमूलक आध्यात्रि- प्रेम, विरह-मिलन आदि का उल्लेख हुआ है और साधनात्मक पक्ष में रत्नत्रयी - भक्ति - प्रेम-योग की साधना तथा मुख्यतः जैन योग की गहन पाई जाती है । एकाध पद में सिद्धोंऔर कबीर की हठयोग की साधना का भी उन पर किंचित् प्रभाव लक्षित होता है ।
वास्तव में, उनकी रहस्यानुभूति
साधनात्मक और भावनात्मक दोनों प्रकार के रहस्यवादों का सम्मिश्रण है । दोनों ही प्रकारों से साधक अपने परम रहस्य को उपलब्ध करता है। आनन्दघन के साधनात्मक और भावनात्मक रहस्यवाद का विशद विवेचन आगे के अध्यायों में किया
जायगा ।
सन्त आनन्दघन के आध्यात्मिक रहस्यवाद को प्रभाव उनके समकालीन उपाध्याय पर भी पड़ा। उपाध्याय यशोविजयजी की समाधितन्त्र, अध्यात्मसार, अध्यात्मोपनिषद् आदि रचनाएँ रहस्यवाद की कोटि में आती हैं जिनमें आध्यात्मिक तत्त्वों की सुन्दर विवेचनाएँ हैं ।
आचार्य कुन्दकुन्द के भावपाहुड़ में भावात्मक अभिव्यक्ति की प्रमुखता है तो अपभ्रंश की रचना-परमात्म प्रकाण, सावय धम्म दोहा तथा पाहुड़ दोहा में योगात्मक रहस्यवाद का स्वर-प्रबल है, किन्तु मध्ययुगीन जैन हिन्दी रहस्यवादी काव्य में साधनात्मक और भावनात्मक दोनों तत्त्व पाए जाते हैं।