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आनन्दधन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
खीर नीर जो मिल रहे 'आनंद' 'जस' सुमति सखी के संग
भयो है एक रस। भव खपाई 'सुजस' विलास भये, सिद्ध स्वरूप लिए धसमस ॥२॥'
उक्त उद्धरणों से यह झलक मिलती है कि उपाध्याय यशोविजय उनसे कितने अधिक प्रभावित थे। आनन्दघन के प्रभावकारी व्यक्तित्व के सम्बन्ध में यह अष्टपदी हमारे सामने एक प्रामाणिक जानकारी उपस्थित करती है; क्योंकि यह उनके समसामयिक एक सन्त पुरुष द्वारा प्रस्तुत की गई है । दूसरे, यह उनके व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों को प्रस्तुत करती है, इसलिए भी इसका महत्त्व है। समशिता
समदर्शिता आनन्दघन के व्यक्तित्व की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है। वे समता के सच्चे साधक थे। समता की यह साधना उनके जीवन का अभिन्न अंग बन गई थी। “साधो भाई समता संग रमीजै" यह उनका जीवन-सूत्र था। वे मान-अपमान, निन्दा-स्तुति से भी अप्रभावित थे। उनके काव्य में अपने आलोचकों के प्रति आक्रोश का एक भी शब्द नहीं मिलता। जैन-परम्परा के अनेक रूढ़िवादी उनके आलोचक थे, फिर भी, वे उनके प्रति समभाव ही रखते थे। विना ने अपनी अष्टपदी में इसका संकेत किया है
कोउ आनंदधन छिद्र हि पेखत, जसराय संग चढ़ि आया।
आनंदघन आनंदरस कीलत, देखत ही जस गुण गाया ॥ वे तो शुद्ध आत्म-भाव में रमण करने वाले श्रेष्ठ ऋषि थे। वे स्वयं एक स्थान पर लिखते हैं :
मान अपमान चित सम गिणै, समगिणे कनक पाखाण रे। बंदक निंदक हु सम गिणै, इस्यो होय तू जान रे ॥
१. यशोविजयकृत अष्टपदी-पद ७-८
उद्धृत--आनन्दघन ग्रन्थावली, पृ० १२-१३ । २. यशोविजयकृत अष्टपदी-पद ४ ।
शान्तिजिनस्तवन, आनन्दघन ग्रन्थावली.