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आनन्दघन का रहस्यवाद चेतन रूप प्रियतम के विरह में समता रूपी आत्मा की तपन का मार्मिक चित्र खींचा है।
आनन्दधन की रचनाओं में रहस्यवाद के मूलतः दो रूप उपलब्ध होते हैं :
(१) साधनात्मक रहस्यवाद,
(२) भावनात्मक रहस्यवाद । उनमें भावना के माध्यम से जागी हई अनुभूति समता और चेतन की एकता की अद्वैतानुभूति है। भावनात्मक रहस्यवाद में रहस्यवाद की विविध अवस्थाएं हैं, उनकी गहरी अनुभूति उनके पदों में अभिव्यंजित हुई है। उनकी भावनामूलक अनुभूति . अध्यात्म-रस से सिक्त है। वस्तुतः उनकी रचनाओं में अध्यात्म का गूढ़ रहस्य निहित है । श्रेयांस जिन स्तवन में तो उन्होंने अध्यात्म को पूर्णरूपेण भर दिया है। उनकी यह कृति अध्यात्मवाद की दृष्टि से सर्वोत्तम उदाहरण प्रस्तुत करती है । इसमें न केवल अध्यात्मवाद के स्वरूप का चित्रांकन हुआ है, अपितु अध्यात्म के लक्षण और विविध रूपों पर भी प्रकाश डाला गया है।
सर्वप्रथम अध्यात्मवादी-आत्मारामी और भौतिकवादी-इन्द्रियरामी के अन्तर को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं :
सयल संसारी इन्द्रियरामो, मुनिगण आतमरामी रे ।
मुख्यपणे जे आतमरामी, ते केवल निष्कामी रे॥' जो ऐन्द्रिक पौद्गलिक या भौतिक सुख को ही महत्त्व देते हैं, ऐसे संसार के समस्त जीव इन्द्रियरामी यानी भौतिकवादी कहे जाते हैं। किन्तु इसके विपरीत सामान्यतः जो इन्द्रिय-सुखों से ऊपर उठ गये हैं, वे साधु दर्शनज्ञान-चारित्र रूप आत्म-गुणों की साधना में रत रहने के कारण 'आत्मरामी' कहे जाते हैं। सम्पूर्ण भौतिक सुखों को तिलांजलि देकर अनासक्त भाव से मुख्यतः आत्म-गुणों की साधना में ही तल्लीन रहने वाले आत्मारामी साधु सभी कामनाओं से रहित और निःस्पृह होते हैं। मुनि और इन्द्रियरामौ संसारी जीव में यही मूलभूत अन्तर है।
अब प्रश्न यह है कि 'अध्यात्म' की कसौटी क्या है ? इसका भी सुन्दर चित्रण आनन्दघन ने किया है :
१. श्रेयांसजिन स्तवन, आनन्दघन ग्रन्थावली