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रहस्यवाद : एक परिचय प्रो० आर० डी० रानाडे ने भी जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त करते हुए ठीक ही कहा है कि 'वे एक भिन्न ही प्रकार के गूढ़वादी थे, उनकी अपने शरीर के प्रति अत्यन्त उदासीनता उनके आत्मसाक्षात्कार को प्रमाणित करती है।' उन्होंने ऋषभदेव को उच्चकोटि का साधक और रहस्यदर्शी माना है। ऋषभदेव की तरह ही अन्य तीर्थंकरों के द्वारा भी इसी साधना-पद्धति का अनुसरण किया गया।
कुन्दकुन्द के अष्टपाहुड़ की भूमिका में श्री जगतप्रसाद ने यह निर्देश किया है कि 'जैनवाद का आधार रहलानुभूति है।'२ जैन रहस्य-द्रष्टाओं
की रहस्यानुभूति की झलक सर्वप्रथम हमें प्राचीनतम जैनागम आचारांग में मिलती है। उसमें कहा गया है
"सव्वे सराणियटति। तक्का जत्थ ण विज्जइ। मई तत्थ
ण गाहिया । ओए अप्पतिट्ठाणस्स खेयण्णे ।"३ अर्थात् वहाँ से सभी स्वर लौट जाते हैं-परम-तत्त्व (परमात्मा) का स्वरूप शब्दों के द्वारा प्रतिपाद्य नहीं है। वह तर्कगम्य भी नहीं है। वह बुद्धि के द्वारा ग्राह्य नहीं है। वाणी वहां मौन हो जाती है। वह अकेला, शरीररहित और ज्ञाता है। __इसी तरह रहस्यात्मकता का संकेत आचारांग के निम्न सूत्र में भी दृष्टिगत होता है
जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ,
जे सव्वं जाणइ, से एगं जाणइ ॥ Rishabhadeva, whose interesting account we meet within the Bhagvata is yet a mystic of a different kind, whose utter carelessness of his body is the supreme mark of his God realisation. R. D. Ranade, Indian Mysticism-Mysticism in Maharashtra, p. 9 उद्धृत-परमात्मा-प्रकाग, पृ० ११०। Jainism is based on a Mystic experience. Asta-Pahuda of Kundkundacharyaa, Part I, Intro
duction by Jagat Prasad, p. 18. ३. आचारांग, ११५६ ४. आचारांग, १॥३॥४
Rishan the butter is God