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आनन्दघन का रहस्यवाद
मीरा ने अपने पदों में विरह का सर्वोत्कृष्ट रूप प्रस्तुत किया है । उनका हृदय प्रभु के बिछोह में विकल है । इस आध्यात्मिक विकलता का हृदयग्राही वर्णन उनके निम्नांकित पदों में देखा जा सकता है :
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सखी मेरी नींद नसानी हो ।
पिया को पंथ निहारते, सब रैन बिहानी हो । सखियन मिल के सीख दई, मन एक न मानी हो । बिन देखे कल ना परे, जिय ऐसी ठानी हो ॥ अंग छीन व्याकुल भई, मुख पिय- पिय बानी हो । अन्तर वेदन बिरह की, वह पीर न जानी हो । ज्यों चातक घन को रहे, मछरी जिमि पानी हो ॥ मीरा व्याकुल बिरहनी, सुध-बुध बिसरानी हो ||
'अन्तर वेदन बिरह की, वह पीर न जानी हों' इस भाव को उन्होंने एक दूसरे पद में और अधिक स्पष्ट किया है :
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घायल की गति घायल जाने, की जिण लाई होय । जौहरी की गति जौहरी जाने, कि जिन जौहरी होय ॥ २ अपने ‘प्रियतम’ के बिना मीरा अति व्याकुल थी । वे कहती हैं
दिवस न भूख रैन नहिं निद्रा यूँ तन पल पल छीजे हो । मीरा कहे प्रभु गिरधर नागर मिल बिछुरन नहीं कीजै हो ॥
इसी तरह मीरा ने 'मैं बिरहणि बैठी जागूँ' आदि पदों में भी विरहोद्गार व्यक्त किए हैं ।
वस्तुतः मीरा ने अपने पदों में परमात्मा से अपने तादात्म्य की अनुभूति का अथवा परमात्मा से मिलन की उत्कण्ठा का सुन्दर वर्णन किया है, जिनमें भावनात्मक रहस्यवाद की झलक दिखाई देती है ।
१. मीरांबाई की पदावली, ८० ।
वही, ७२ ।
मीरांबाई की पदावली, १०७ ।
वही, पृ० ८६ ।
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