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एवं खलु कण्हे वासुदेवे अरहं अरिट्ठणेमिं पायवंदए निग्गए तं नायमेयं अरहया, विण्णायमेयं अरहया, सुयमेयं अरहया, सिट्ठमेयं अरहया भविस्सइ कण्हस्स वासुदेवस्स । तं न णज्जइ णं कण्हे वासुदेवे ममं केण वि कु-मारेणं मारिस्सइ त्ति कटु भीए सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ । पडिणिक्खमित्ता कण्हस्स वासुदेवस्स बारवई णयरिं अणुप्पविसमाणस्स
पुरओ सपक्खि सपडिदिसं हव्यमागए । सूत्र ३५ :
अपन प्रश्न का समाधान पाकर कृष्ण वासुदव अरिष्टनमि का वन्दन नमस्कार कर जहां अपना प्रधान हस्तिरत्न खड़ा था, वहाँ पहुँचकर उस हाथी पर आरूढ़ हा और अपन गजप्रासाद की आर चल पड़ । उधर उय सामिल ब्राह्मण के मन में दूसरे दिन सूर्योदय होते ही इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ(आज) निश्चय ही कृष्ण वासुदेव अरिहंत अरिष्टनेमि के निकट वन्दन करने के लिए गय हांगे । व ता सर्वज्ञ हैं. उनस काई वात छिपी नहीं है । उन्हांन गजमुकुमाल की मृत्यू और मर ककत्य सम्वन्धी सव वृत्तान्त जान लिया होगा, आद्योपान्त पूर्णतः विदित कर लिया हांगा । अर्हन्त अरिष्टनमि ने अवश्यमंव कृष्ण वासुदेव को यह सव कुछ बता दिया होगा । तो ऐसी स्थिति में कृष्ण वासुदव क्रोधित होकर मुझे न मालूम किय प्रकार की मौत से मारेंगे। एया विचार कर वह इग, भयाक्रान्त हुआ. और घर से निकला, नगर में कहीं दूर भागने का निश्चय किया । उसनं सांचा कि श्रीकृष्ण तो राजमार्ग से लौटेंगे। इसलिए मैं किसी छोटी गली के रास्ते से निकल भागें और उनके लौटने से पूर्व ही निकल जाऊँ। ऐसा सोचकर वह अपने घर से निकला आर गली के रास्त से भागा । इधर कृष्ण वासुदेव भी अपने लघु-सहोदर भाई गजसुकुमाल मुनि की अकाल मृत्यु के शोक ये विह्वल होने के कारण राजमार्ग छोड़कर उसी गली के रास्ते स लौट रहे थे ।
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अन्तकृदशा सूत्र : तृतीय वर्ग
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