Book Title: Agam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana, Rajkumar Jain, Purushottamsingh Sardar
Publisher: Padma Prakashan
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बहुत मारा-पीटा, मरणासन्न कर दिया तो उसने द्वारका विनाश का निदान कर लिया। अग्निकुमार देव बनकर अग्निवर्षा करके उसने समृद्ध नगरी द्वारका को भस्म कर डाला।
ज्ञातव्य तथ्य निदान करने वाले के लिए तपस्वी होना अनिवार्य है; चाहे वह बाल तप ही क्यों न हो। क्योंकि तप के फलस्वरूप ही उसे वह शक्ति प्राप्त होती है जिससे कि उसकी अभिलाषा पूर्ण हो सके।
उत्तराध्ययनसूत्र के चित्त-संभूतीय अध्ययन में सम्भूत मुनि चक्रवर्ती के भोगों की प्राप्ति का निदान करते हैं और अपनी उग्र तपस्या के फलस्वरूप ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती बनते हैं। __सामान्यतः मनुष्य-संबंधी भोगों का निदान करने वाला जीव इच्छित भोगों को भोगकर अन्त में नरक जाता है; जैसे ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती नरकगामी हुआ।
लेकिन द्रौपदी ने भी पूर्वभव में मनुष्य-संबंधी भोगों का निदान किया, पाँच पांडवों के साथ उसका विवाह हुआ। लेकिन स्वयंवर मंडप में ही आकाशचारी श्रमण ने उसके पिछले भव सुनाये तो उसे सद्बुद्धि आई, निदान का प्रायश्चित्त किया और अन्त में स्वर्ग प्राप्त किया। निदान दृढ़ संकल्प है; अपनी तपस्या के फलस्वरूप अभिलाषा पूरी करना है।
लेकिन सामान्यतः सभी मानव अपनी उन्नति की, धन-शक्ति-पद-प्रतिष्ठा पाने की इच्छा करते हैं. योजनाएँ वनाते हैं, उचित दिशा में यथाशक्ति परिश्रम भी करते हैं, बुद्धि, कुशलता, चतुगई आदि का भरपूर प्रयोग भी करते हैं और भाग्य संयोग से अपनी महत्त्वाकांक्षा पूरी कर भी लेते हैं; लेकिन यह निदान नहीं है; क्योंकि निदान तो तपस्या को बेचना है। यह स्थिति यहाँ नहीं है। यहाँ तो केवल महत्त्वाकांक्षा है।
निदान, एक प्रकार से स्वयं को सीमा में, परकोटे में आवद्ध कर लेना है। जैसे-श्रमणोपासक वनने के निदान वाला जीव अनगार नहीं बन सकता और जिसने अनगार बनने का निदान किया है. वह मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता।
इसी भाव को व्यक्त करते हुए अभिधान राजेन्द्र कोष, पृष्ठ २०९४ में निदान शब्द का अर्थ बताया गया है-"जिस प्रकार परशु (फरसा) से लता का छेदन किया जाता है, उसी प्रकार दिव्य एवं मानुषिक काम-भोगों की कामनाओं से आनन्द रस तथा मोक्षरूप रत्नत्रय की लता का छेदन किया जाता है।" निष्कर्ष
संक्षेप में तथ्य यह है कि काम-भोग तथा शत्रुतारूप निदान तो त्याज्य है और गर्हित है ही; किन्तु धर्मानुरागवश किया गया निदान भी अनुचित है, आत्मा की शुद्धि और मुक्ति में वाधक है।
अतः किसी भी प्रकार का निदान न करना ही श्रेयष्कर है।
.४०८.
अन्तकृद्दशा महिमा
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