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एक वार पिंगल और स्कन्दक दोनों मिले। पिंगल ने स्कन्दक से पूछा“स्कन्दक ! यह लोक सान्त है या अनन्त है ?" "जीव सान्त है या अनन्त है ?" “सिद्धि सान्त है या अनन्त है ?" ‘‘सिद्ध सान्त है या अनन्त है ?" “किस प्रकार का मग्ण पाकर जीव संसार को घटाता या बढ़ाता है ?"
इन द्विधात्मक प्रश्नों को सुनकर स्कन्दक असमंजस में पड़ गया। एकान्त भाषा में कोई उत्तर संभव नहीं था। वह विचार-मग्न हो गया। कुछ भी न कह सका। उसके दिल में हलचल मच गई। अपने ज्ञान के प्रति शंकाशील हो उठा।
उसी समय उसने लोगों के मुख से सुना कि भगवान महावीर समीप ही कृतंगला नगरी में पधारे हैं। इन प्रश्नों का उत्तर पाने के लिए स्कन्दक भी भगवान महावीर के पास कृतंगला नगरी की ओर चल पड़ा।
उसके पहुंचने से पहले ही भगवान महावीर ने गौतम गणधर से कहा“गौतम ! आज तुमसे तुम्हारा पूर्व स्नेही मिलेगा।" गौतम ने पूछा"कौन ? भगवन् !" “स्कन्दक परिव्राजक।" "वह यहाँ किसलिये आ रहा है ?"
"पिंगल श्रावक ने लोक आदि की सान्तता-अनन्तता के विषय में उससे कुछ प्रश्न किये थे, जिनके उत्तर वह न दे सका। उन्हीं के समाधान के लिए वह मेरे पास आ रहा है।"
भगवान इतना कह पाये थे कि गौतम को दूर से आता हुआ स्कन्दक परिव्राजक दिखाई दिया। गौतम ने आगे बढ़कर उसका स्वागत किया। स्कन्दक प्रसन्न हो गया।
फिर उसने वन्दना-नमस्कार करके भगवान के समक्ष अपनी जिज्ञासाएँ रखीं। भगवान ने स्याद्वाद शैली से उनका समाधान कर दिया। __ अपने सभी प्रश्नों का समुचित समाधान पाकर स्कन्दक बहुत प्रभावित हुआ। उसने भगवान से श्रामणीदीक्षा ग्रहण कर ली। १२ भिक्षु प्रतिमाओं और गुणरत्नसंवत्सर तप की आराधना की। बारह वर्ष तक निरंतर साधना और श्रमण-पर्याय का पालन करते रहे। आयु के अन्त में विपुलाचल पर्वत पर संलेखना-संथारा करके शरीर का त्याग किया और अच्युत कल्प में देव बने ।
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अन्तकृदशा महिमा
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