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देवानन्दा भगवान महावीर को अपलक दृष्टि से देखने लगी। उसका रोम-रोम प्रफुल्लित हो उठा। भगवान के प्रति वात्सल्य के कारण उसके स्तनों से दूध की धारा बहने लगी।
देवानन्दा की यह दशा देखकर गौतम स्वामी ने भगवान से जिज्ञासा की"प्रभु ! इस देवानन्दा ब्राह्मणी की ऐसी दशा क्यों हो रही है ?'' तब भगवान महावीर ने संपूर्ण रहस्य उद्घाटित करके कहा
"हे गौतम ! इस प्रकार देवानन्दा ब्राह्मणी मेरी माता है। मैं इसके गर्भ में ८२ रात्रियों (दिन) तक रहा हूँ। मेरे प्रति वात्सल्य भाव के कारण ही देवानन्दा ब्राह्मणी की यह दशा हो रही है।"
सम्पूर्ण रहस्य को जानकर देवानन्दा और ऋषभदत्त के हर्ष का ठिकाना न रहा। दोनों ने भगवान महावीर के पाद-पद्यों में दीक्षा ग्रहण की और तप-संयम की उत्कृष्ट आराधना कर मुक्त हुए।
'१०. महाबलकुमार महाबलकुमार का नाम संकेत अन्तकृद्दशासूत्र के प्रथम वर्ग गौतमकुमार नामक प्रथम अध्ययन, सूत्र १७ में आया है। वहाँ राजा अन्धकवृष्णि की रानी धारिणी गर्भ धारण करते समय सिंह का स्वप्न देखती है, उस सन्दर्भ में कहा गया है
स्वप्न-दर्शन, पुत्र-जन्म, उसकी बाल-क्रीड़ाएँ, कला ज्ञान, यौवन, पाणिग्रहण, रम्य प्रासाद, भोग आदि सब महाबलकुमार के समान समझना चाहिए।
हस्तिनापुर नगर का राजा बल था। उसकी रानी का नाम था-प्रभावती।
एक रात्रि अपनी सुख शय्या पर सोई हुई थी। उसने स्वप्न में श्वेत सिंह देखा। उसकी नींद खुल गई। पति को अपना स्वप्न सुनाया।
राजा बल ने स्वप्न-पाठकों को बुलाकर स्वप्न का फल पूछा। स्वप्न-पाठकों ने विभिन्न प्रकार के ७२ स्वप्नों के फल की विवेचना करके रानी के स्वप्न का फल बताया-इसके फलस्वरूप अर्थ-लाभ, भोग-लाभ, राज्य-लाभ और पुत्र-लाभ होगा। यथेष्ट पुरस्कार देकर राजा ने स्वप्न पाठकों को विदा कर दिया।
गर्भकाल पूरा होने पर रानी प्रभावती ने एक सुन्दर, सुकुमाल, सर्वांगपूर्ण पुत्र को जन्म दिया। महोत्सवपूर्वक राजा बल ने अपने पुत्र का नाम महाबल रखा।
पाँच धात्रियों द्वारा महाबलकुमार का पालन-पोषण होने लगा।
बाल-क्रीड़ाओं से सबको प्रमुदित करता हुआ महाबलकुमार बढ़ने लगा। योग्य वय होने पर उसने कलाचार्य से कला-ज्ञान प्राप्त किया, युवा हुआ, पिता ने आठ राजकन्याओं के साथ उसका पाणिग्रहण कर दिया, माता-पिता की ओर से उसे (उसकी वधुओं को) आठ कोटि हिरण्य, आठ कोटि रजत आदि अनेक प्रकार की वस्तुओं का प्रीतिदान मिला और वह अपने लिए निर्मित भवन में अपनी आठों पत्नियों के साथ सुखपूर्वक भोग भोगने लगा।
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अन्तकृद्दशा महिमा
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