Book Title: Agam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana, Rajkumar Jain, Purushottamsingh Sardar
Publisher: Padma Prakashan

Previous | Next

Page 572
________________ प्रवृत्ति होती है। इस प्रवृत्ति को सन्तुष्ट करना अनिवार्य है, अन्यथा मानव के शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की संभावना रहती है; और इस मूल प्रवृत्ति-काम प्रवृत्ति को संतुष्ट करने का सबसे सरल और उत्तम उपाय विवाह है। धार्मिक और नैतिक दृष्टि-बिन्दु भी विवाह की उपयोगिता स्वीकार करता है। नैतिक दृष्टि के अनुसार विवाह उच्छृखलता और अराजकता को रोकता है। यदि स्वच्छन्द यौनाचार को स्वीकृति दे दी गई तो नैतिकता का ह्रास तो होगा ही, साथ ही मानव ऐड्स आदि अनेक बीमारियों का शिकार हो जायेगा। उपदंश (Venereal diseases) आदि जैसी भयंकर बीमारियाँ फैल जायेंगी, मानवता रुग्ण हो जायेगी। इसलिए विवाह आवश्यक है। धार्मिक दृष्टि और विशेष रूप से जैनधर्म संपूर्ण ब्रह्मचर्य को श्रेष्ठ मानता है। लेकिन सभी स्त्री-पुरुष तो पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकते। काम के आवेग को अवरुद्ध करना सभी के लिए संभव नहीं है। इस स्थिति पर विचार करके मेधावी आचार्यों ने काम को मर्यादित करने की दृष्टि से विवाह का सामाजिक महत्त्व स्वीकार किया है। काम की भावना अथवा कामाचार को अनेक स्त्रियों से हटाकर एक परिणीता स्त्री में केन्द्रित कर देना और उस विवाहित स्त्री के साथ भी मर्यादापूर्वक जीवन बिताना। यही मत वैदिक धर्म परम्परा का भी है। विवाहित जीवन में भी स्त्री-पुरुषों दोनों को जितना संभव हो सके अधिक से अधिक ब्रह्मचर्य-पालन का प्रयास करना चाहिए; भोगी भँवरा बनकर काम-भोगों में न डूब जाये, स्त्री के प्रति-भोगों के प्रति गूढ़ आसक्ति न रखे। विवाह : दो दिलों का सम्बन्ध विवाह के विषय में अधिकांश धारणा है कि यह दो दिलों का मिलन है। यह कथन पश्चिमी सभ्यता से प्रभावित है। भारत में भी प्राचीनकाल में गांधर्व विवाह होते थे। ऐसे विवाहों में युवक-युवती परस्पर विवाह कर लेते थे। लेकिन विवाह दो परिवारों का मिलन भी होता है। विवाह के माध्यम से दो परिवार एकता के सूत्र में बँध जाते हैं। ऐसे विवाह व धूमधाम से होते हैं, बारातें सजती हैं, वर-पक्ष, कन्या-पक्ष के घर जाता है और बड़े समारोह के साथ वर-वधू का विवाह होता है, वे परस्पर विवाह के बन्धन सूत्र में बंधते हैं। वर-पक्ष और कन्या-पक्ष वर-वधू को प्रीतिदान और दात (दहेज) देते हैं। कन्या-पक्ष की ओर से वर पक्ष को दिया गया धन, वैभव आदि दात (दहेज) कहलाता है और वर-पक्ष अपने पुत्र तथा पुत्र-वधुओं को जो कुछ देता है, वह प्रातिदान कहा जाता है। अन्तकृद्दशासूत्र में ऐसे ही विवाहों का वर्णन है। वर का जितनी कन्याओं से विवाह होता है उसे उतने ही दात (दहेज-कन्या के पिता द्वारा दिया गया धन आदि) मिलते हैं और वर का पिता भी अपनी पुत्र-वधुओं को धन आदि का प्रीतिदान देता है। यथा-अन्तकृद्दशासूत्र के पहले वर्ग के पहले अध्ययन में गौतमकुमार का विवाह ८ राजकन्याओं के साथ हुआ था। वहाँ दात (दहेज) में प्राप्त तथा नववधुओं को प्रीतिदान में दी गई वस्तुओं के नाम इस प्रकार गिनाए गये हैं अन्तकृद्दशा महिमा .४७५ . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587