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श्रेणिक की मृत्यु बड़ी विषम परिस्थितियों में हुई। उसी के पुत्र और चेलना के आत्मज कोणिक ने षड्यन्त्र करके उसे बन्दी बनाया और पिंजरे में डाल दिया । वहाँ उसने अपनी अँगूठी में जड़े हीरे को चबाकर प्राणोत्सर्ग कर दिया।
एक उल्लेख के अनुसार श्रेणिक का जन्म भगवान महावीर के जन्म से १५ वर्ष पूर्व ( ई. पू. ६१४ ) में तथा देहावसान भी भगवान महावीर के निर्वाण से १५ वर्ष पूर्व ( ई. पू. ५५२ ) में हुआ था ।
८. रानी चेलना
चेलना राजा श्रेणिक की पटरानी थी, श्रेणिक इससे अत्यधिक प्रेम करता था, प्राणों से भी अधिक चाहता था । चेलना की प्रेरणा से ही राजा श्रेणिक जैनधर्मानुयायी और भगवान महावीर का भक्त बना।
चेलना वैशाली-नरेश राजा चेटक की सबसे छोटी और सातवीं पुत्री थी। इससे बड़ी छह बहनें और थीं, जिनमें से पाँच के विवाह तो तत्कालीन प्रसिद्ध राजाओं के साथ हो गये थे, छठवीं पुत्री सुज्येष्ठा ने संयम धारण कर लिया था तथा सातवीं पुत्री चेलना का विवाह मगध सम्राट् श्रेणिक के साथ हुआ।
यह विवाह भी बड़े रोमांचक ढंग से हुआ।
सुज्येष्ठा (तब तक सुज्येष्ठा कुँवारी थी, उसने संयम ग्रहण नहीं किया था) की सुन्दरता से आकर्षित होकर मगधेश श्रेणिक ने अपना दूत वैशाली - नरेश चेटक की राजसभा में भेजकर सुज्येष्ठा की याचना की।
किन्तु राजा चेटक ने स्पष्ट इन्कार कर दिया। कारण यह बताया कि श्रेणिक हीन कुल का है। एक कारण और भी हो सकता है कि चेटक राजा पक्के जैनधर्मानुयायी थे, जबकि उस समय तक श्रेणिक बौद्ध मतावलम्बी था। इस कारण चेटक अपनी पुत्री का विवाह श्रेणिक के साथ न करना चाहते हों ।
राजा चेटक का इन्कार सुनकर कुशल तंत्री अभयकुमार की योजना से श्रेणिक ने काम किया । मगध राज्य की सीमा से वैशाली तक एक लंबी सुरंग खुदवाई | अभयकुमार के तंत्र से सुज्येष्ठा और चेलना दोनों ही राजा श्रेणिक के प्रति आकर्षित होकर उसके साथ भागने को उतावली हो गई।
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निश्चित दिन और समय पर सुज्येष्ठा और चेलना दोनों बहनें सुरंग द्वार पर जा पहुँचीं । राजा श्रेणिक का रथ आने में देर थी। सुज्येष्ठा अपने जेवरों का डिब्बा भूल आई थी । उसने चेलना से कहा - " मैं अपने जेवरों का डिब्बा कक्ष में भूल आई हूँ। अभी लेकर आती हूँ । यदि मगधेश आ जायें तो तू उन्हें रोक लेना ।" इतना कहकर सुज्येष्ठा चली गई।
श्रेणिक का रथ सुरंग द्वार पर आया । चेलना तुरन्त रथ में बैठ गई । श्रेणिक जल्दी में थे। रथवान ने रथ हाँक दिया। चेलना चुपचाप सिकुड़ी-सिमटी बैठी रही। सुरंग पार होने के बाद चेलना ने रहस्य खोलामैं सुज्येष्ठा नहीं, चेलना हूँ।"
राजा श्रेणिक ने चेलना को ही हृदयेश्वरी मान लिया।
इधर सुज्येष्ठा जेवरों का डिब्बा लेकर सुरंग द्वार पर आई तो उसने देखा कि चेलना चली गई है। खेल खत्म हो चुका है । निराश होकर उसने श्रमणी - दीक्षा ग्रहण की और भगवान महावीर के साध्वी संघ में सम्मिलित होकर तप-संयम की आराधना में दत्तचित्त हो गई।
अन्तकृद्दशा महिमा
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