Book Title: Agam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana, Rajkumar Jain, Purushottamsingh Sardar
Publisher: Padma Prakashan

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Page 536
________________ कंस के छोटे भाई अतिमुक्तकुमार प्रारम्भ से वैरागी स्वभाव के थे। धार्मिक आस्था उनके मन में गहरी यमाई हुई थी। गजमहल के इस दूषित वातावरण से उन्हें वितृष्णा हो गई। उन्होंने एक श्रमण से जैन भागवती दीक्षा ग्रहण कर ली और ज्ञान, ध्यान. तप. संयम से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरण करने लगे। नपस्या के फलस्वरूप उन्हें अनेक लब्धियाँ भी प्राप्त हो गईं। अन्तकृद्दशासूत्र के तृतीय वर्ग में संकेतित यही अतिमुक्तकुमार श्रमण हैं। इनके जीवन का एक और प्रसंग त्रिष्टिशलाका पुरुप चरित्र में मिलता है। वह भी देवकी के जीवन से संबंधित है। वसुदेव-देवकी के विवाह के उपलक्ष्य में कंस एक बड़ा हर्षोत्सव मना रहा था। प्रत्येक व्यक्ति हर्षोत्सव अपनी मचि-प्रवृत्ति के अनुकूल मनाता है। कंस और उसकी पत्नी जीवयशा माँस-मदिरासेवी तथा विषयी थे तथा राजमहल में भी मदिग की सरिता वह रही थी। ऐसे समय में मुनि अतिमुक्तकुमार श्रमण भिक्षा के लिए राजमहल में पहुँचे और वहाँ का वातावरण देखकर लौटने लगे तभी नशे में वेभान जीवयशा ने मुनि का मार्ग गेक लिया और कहने लगी "अर देवर ! (संसारी दृष्टि से कंस के छोटे भाई होने के नाते) इस अवसर पर तुम भी पीओ और मग्न होकर हमारे साथ गग-रंग-क्रीड़ा कगे।" ____ मुनि ने बहुत प्रयास किया कि जीवयशा द्वार से हट जाये, उन्हें बाहर जाने का मार्ग दे दे, लेकिन जब जीवयशा द्वार पर ही अड़ी रही तो आखिर मुनि के मुँह से निकल ही गया___जीवयशा ! जिस देवकी के विवाहोत्सव में तू मदोन्मत्त बनी हुई है, उसी का सातवाँ पुत्र तर पति का काल होगा।" _मुनि के ये वचन सुनते ही जीवयशा का नशा उड़ गया. वह द्वार से हट गयी। मुनि गजमहल के उप दूषित वातावरण से बाहर निकल गये। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि कंस ने कुटिलतापूर्वक अपने उपकारी वासुदेव तथा देवकी को कैद (नजरकैद) कर लिया। ये अतिमुक्तकुमार श्रमण अरिहंत अग्ष्टिनेमि के युग में हुए हैं। ७. श्रेणिक राजा जैन साहित्य में श्रेणिक राजा का बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह मगध के विशाल साम्राज्य का स्वामी और भगवान महावीर का समकालीन था। भगवान महावीर के प्रति इसकी असीम आस्था थी। उनका दृढ़ श्रद्धालु भक्त था। आचार्यों ने इसके जीवन की विभिन्न घटनाओं को गुम्फित करके श्रेणिक चरित्र की रचना की है तथा इसके विषय में अनेक प्रकीर्णक रचनाएँ भी मिलती हैं। __ अन्तकृदशा महिमा .४३९ . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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