Book Title: Agam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana, Rajkumar Jain, Purushottamsingh Sardar
Publisher: Padma Prakashan
View full book text
________________
राज्य और रनिवास की प्रत्येक समस्या का समाधान अभयकुमार ने किया। गनी चलना के दोहद की पूर्ति भी इसी ने की तो रानी धारिणी का दोहद भी इसी ने पूरा किया।
अन्तकृद्दशासूत्र के वर्ग ३. अ. ८, सूत्र १८ में जो इसके नाम का संकेत 'जहा अभओ' अभयकुमार के समान इन शब्दों द्वारा किया गया है, वह गनी धारिणी की दोहद पूर्ति से ही सम्बन्धित है।
गनी धारिणी को जव अकाल में वर्षा ऋतु और मेघाच्छन्न वातावरण का दोहद हुआ तो उसकी पूर्ति के लिए पौपधशाला में गया, अष्टम भक्त तप (वेला) करके अपने मित्र देव की आराधना की और देव के सहयोग से रानी धारिणी का दोहद पूरा किया।
इसी प्रकार अन्तकृद्दशासूत्र में श्रीकृष्ण वासुदेव, अपनी माता गनी देवकी की पुत्र-प्राप्ति की इच्छा पूरी करने के लिए पौषधशाला में गये और तेला तप करके हरिणगमेषी देव की आगधना की. देव प्रगट हुआ और रानी देवकी को गजसुकुमाल नाम के पुत्र की प्राप्ति हुई।
दोनों घटनाएँ लगभग समान होने के कारण अन्तकृद्दशा के सूत्रकार ने अभयकुमार का नाम संकेतित किया है।
अभयकुमार ने संसार से विरक्त होकर प्रभु महावीर के चरणों में दीक्षा ग्रहण की, ५ वर्ष नक संयम का पालन किया, विविध प्रकार के तप किये और आयु पूर्ण कर विजय नाम के अनुत्तर विमान में देव
बना।
६. अतिमुक्तकुमार श्रमण
(उग्रसेन-पुत्र-कंस के लघु भ्राता) अन्तकृद्दशासूत्र के वर्ग ३, सूत्र १० में अतिमुक्तकुमार श्रमण का उल्लेख प्राप्त होता है।
सन्दर्भ यह है कि जब दो-दो के संघाड़े में तीन वार छह मुनि देवकी के महल में आहार के लिए आते हैं तव उन सब के समान वय रूप को देखकर देवी संशय में पड़ जाती है और मुनियों के यह बताने पर कि हम छह सहोदर भाई हैं तथा भद्दिलपुर निवासी नाग गाथापति की पत्नी सुलया के पुत्र हैं।
यह सुनकर देवकी का संशय और भी गहरा हो जाता है। उसे अपने बचपन की घटना याद आ जाती है-“जव में पोलासपुर में थी तो अतिमुक्तकुमार श्रमण ने कहा था-हे देवी ! तुम आट पुत्रों का जन्म दोगी जो नलकूवेर के समान सुन्दर होंगे तथा रंग-रूप-वय आदि में एक-से होंगे। इस भरत-क्षेत्र में ऐसे पुत्रों को कोई अन्य माता जन्म नहीं देगी।"
देवकी के बारे में ऐसी भविष्यवाणी करने वाले मुनि अतिमुक्तकुमार श्रमण राजा उग्रसेन के पुत्र तथा कंस के छोटे भाई थे।
वसुदेव जी की कृपा से जब कंस को मथुरा का गज्य प्राप्त हुआ. उस समय उसके पिता उग्रसेन मथुरा के शासक थे। कंस ने पूर्ववद्ध वैर के कारण अपने पिता उग्रसेन को ही बन्दी बना लिया और स्वयं मथुरा-नरेश बन बैठा। कंस की क्रूर विषयानुगामी प्रवृत्तियों के कारण राजमहल का वातावरण भी विषमय हो गया। माँस-मदिरा आदि का सेवन तथा अनार्य वृत्तियाँ निगबाध चलने लगीं।
अन्तकृदशा महिमा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org