Book Title: Agam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana, Rajkumar Jain, Purushottamsingh Sardar
Publisher: Padma Prakashan

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Page 526
________________ उसी समय अपापा नगरी के बाह्य भाग में देवों ने तीर्थंकर भगवान महावीर के समवसरण की रचना की। भगवान के समवसरण में सम्मिलित होने के लिए अनेक देव अपने विमानों मे बैठकर आकाश-मार्ग से आने लगे। उन विमानों को देखकर याज्ञिकरण बहुत प्रसन्न हुए। वे समझे कि ये देवगण हमारे यज्ञ से आकर्षित होकर आ रहे हैं। लेकिन जब देवविमान आगे निकल गये तो सभी बहुत निराश हुए। इन्द्रभूति गौतम को अपने ज्ञान का दंभ तो था ही। अपने पाँच सौ शिष्यों के साथ चल दिये शास्त्रार्थ द्वारा भगवान को पराजित करने। संपूर्ण ज्ञान कभी भी किसी छद्मस्थ को नहीं हो सकता। ज्ञानी पुरुषों के मन में भी कोई न कोई शंका रह ही जाती है जिसे वे कभी प्रगट नहीं करते। गौतम के मन में भी एक शंका थी-आत्मा है या नहीं ? भगवान ने उनके बिना पूछे ही वह शंका प्रगट कर दी और साथ ही समाधान भी कर दिया। इन्द्रभूति गौतम भगवान की सर्वज्ञता के समक्ष विनत हो गये और उनका शिष्यत्व ग्रहण करके श्रमण दीक्षा स्वीकार कर ली। साथ ही उनके ५00 शिष्य भी श्रमण बन गये। भगवान ने त्रिपदी' का ज्ञान दिया तो उनके ज्ञान-नेत्र खुल गये। उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ और प्रभु के प्रथम गणधर कहलाये। इन्द्रभूति गौतम प्रवल जिज्ञासु थे। उन्होंने भगवान से अनेक प्रश्न किये और उनका समाधान पाया। भगवती जैसा विशाल आगम इस बात का साक्षी है। वे घोर तपस्वी थे, वेले-बेले पारणा करते थे। उनके लिए घोर तवे, गुत्ते, गुत्तिन्दिये, गुत्त बंभयारी आदि विशेषण जैन सूत्रों में मिलते हैं। उन्हें अक्खीण महानस आदि अनेक लब्धियाँ प्राप्त थीं। वे अपनी तेजोलेश्या को गुप्त रखते थे, कभी प्रगट नहीं होने देते थे। उन्होंने अपनी आत्मा का उपकार तो किया ही, धर्म का प्रसार करके लोकोपकार भी बहुत किया। अनेक भव्य पुरुषों को धर्म-साधना की ओर उन्मुख किया। उनके निमित्त से अनेक भव्य मानव केवली बनकर मुक्त हुए। भगवान महावीर के प्रति उनकी गहरी श्रद्धा-भक्ति और अनुराग था। यह अनुराग ही उनकी कैवल्य-प्राप्ति में बाधक हो रहा था। जिस रात्रि को भगवान मोक्ष पधारे उसी रात्रि को उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई। गणधर गौतम ने ५० वर्ष की आयु में भगवान महावीर से श्रमण दीक्षा ली, ३0 वर्ष तक छद्मस्थ रहे और १२ वर्ष तक केवली-पर्याय का पालन कर ९२ वर्ष की आयु में मुक्त हो गये। १. उप्पन्ने इ वा, विगमे इ वा, धुवे इ वा-पदार्थ उत्पन्न होता है, व्यय होता है तथा ध्रुव (मूल तत्त्व रूप में) पर्याय रूप में रहता है। अन्तकृदशा महिमा ४२९ . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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