Book Title: Agam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana, Rajkumar Jain, Purushottamsingh Sardar
Publisher: Padma Prakashan

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Page 530
________________ सुविणीये ते भंते ! निग्गंथे पावयणे। सुभाविए ते भंते ! निग्गंथे पावयणे। अणुत्तरे ते भंते ! निग्गंथे पावयणे। धम्मं णं आइक्खमाणा, उवसमं आइक्खइ। उवसमं आइक्खमाणा, विवेगं आइक्खइ। विवेगं आइक्खमाणा, वेरमणं आइक्खइ। वेरमणं आइक्खमाणा, अकरणं पावाणं आइक्खइ। णत्थि णं अण्णे केइ समणं वा माहणे वा, जे एरिस धम्ममाइक्वित्तए। अर्थात् भगवन् ! आपका निर्ग्रन्थ प्रवचन सुआख्यात है, सुप्रज्ञप्त है, सुभाषित है, शिष्यों (विनीतों) से भलीभाँति सुनियोजित है, सुभाषित है, अनुत्तर है। आपने अपने धर्म-प्रवचन से उपशम भाव के साथ विवेक, विरति और निवृत्ति धर्म का सम्यक् प्रतिपादन किया है। कोई भी अन्य श्रमण और ब्राह्मण इस प्रकार धर्म की व्याख्या करने में समर्थ नहीं है। अन्तकद्दशांगसूत्र में स्थान-स्थान पर सुधर्मा स्वामी का नामोल्लेख हुआ है। प्रत्येक वर्ग और सभी अध्ययन उनकी वाचना से प्रारम्भ होते हैं और अन्त भी उन्हीं के द्वारा होता है। जम्बू उनसे जिज्ञासा करते हैं कि अमुक वर्ग अथवा अध्ययन में भगवान महावीर ने क्या भाव फरमाये हैं और उनकी जिज्ञासा को शांत करते हुए सुधर्मा स्वामी वर्ग अथवा अध्ययन का भाव (subject matter) का वर्णन करते हैं और अन्त में कहते हैं-भगवान महावीर ने अमुक अध्ययन के यह भाव फरमाये हैं, जैसे मैंने भगवान के श्रीमुख से स्वयं सुने हैं; वही तुम्हें बताये हैं। इससे सुधर्मा की वचन-प्रामाणिकता भी सिद्ध होती है। __ अन्तकृद्दशांगसूत्र में सुधर्मा स्वामी के नाम के साथ कहीं 'अज्ज' विशेषण लगाया गया है तो कहीं 'थेरे'। जैसे-'अज्ज सुहम्मा', 'सुहम्मा थेरे'। __ ये विशेषण उनकी चारित्रिक निर्मलता और ज्ञान-गरिमा को प्रकट करते हैं। साथ ही उनके प्रति पूज्य भाव भी प्रदर्शित करते हैं। वास्तव में सुधर्मा स्वामी प्रत्येक जैन साधक के लिए पूजनीय हैं। ३. जम्बू स्वामी आर्य जम्बू प्रस्तुत अन्तकृद्दशांगसूत्र की रीढ़ और केन्द्र-बिन्दु (back bone and instigating centre) हैं। इस सम्पूर्ण अंग आगम की रचना का प्रमुख आधार उनकी जिज्ञासा है, ज्ञान-प्राप्ति की अनबुझ पिपासा १. साध्वी संघमित्रा : जैन धर्म के प्रभावक आचार्य, पृष्ठ ५८-५९. अन्तकृद्दशा महिमा .४३३ . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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